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________________ प्रमाणफलमीमांसा ३८९ पा जाता है। यद्यपि ज्ञान निरंश है, अतः उसमें उक्त दो अंश पृथक् नहीं होते, फिर भी अन्यव्यावृत्तिकी अपेक्षा ( असारूप्यव्यावृत्तिसे सारूप्य, और अनधिगमव्यावृत्तिसे अधिगम ) दो व्यवहार हो जाते हैं । विज्ञानवादी बौद्धोंके मतमें बाह्य अर्थका अस्तित्व न होनेसे ज्ञानगत योग्यता ही प्रमाण मानो जाती है और स्वसंवेदन फल । एक हो ज्ञानको सव्यापार प्रतीति होनेसे उसीमें प्रमाण और फल ये दो पृथक व्यवहार व्यवस्थाप्य-व्यवस्थापकका भेद मानकर कर लिये जाते हैं। वस्तुतः ज्ञान तो निरंश है, उसमें उक्त भेद हैं ही नहीं। प्रमाण और फलका भेदाभेद : जैन परम्परामें चूंकि एक ही आत्मा प्रमाण और फल दोनों रूपसे परिणति करता है, अतः प्रमाण और फल अभिन्न माने गये हैं, तथा कार्य और कारणरूपसे क्षणभेद और पर्यायभेद होनेके कारण वे भिन्न हैं। बौद्धपरम्परामें आत्माका अस्तित्व न होनेसे एक ही ज्ञानक्षणमें व्यावृत्तिभेदसे भेदव्यवहार होने पर भी वस्तुतः प्रमाण और फलमें अभेद हो माना जा सकता है। नैयायिक आदि इन्द्रिय और सन्निकर्षको प्रमाण माननेके कारण फलभूत ज्ञानको प्रमाणसे भिन्न ही मानते हैं। इस भेदाभेदविषयक चर्चामें जैन परम्पराने अनेकान्तदृष्टिका ही उपयोग किया है और द्रव्य तथा पर्याय दोनोंको सामने रखकर प्रमाणफलभाव घटाया है। आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेनने अज्ञाननिवृत्ति, हान, उपादान और उपेक्षाबुद्धि को ही प्रमाणका फल बताया है और अकलंकदेवने पूर्व पूर्व ज्ञानोंको प्रमाण और उत्तर उत्तर ज्ञानोंको फल कहकर एक ही ज्ञानमें अपेक्षाभेदसे प्रमाणरूपता और फलरूपताका भी समर्थन किया है। बौद्धोंके मतमें प्रमाण-फलव्यवहार, व्यवस्थाप्य-व्यवस्थापक दृष्टिसे है, जबकि नैयायिक आदिके मतमें यह व्यवहार कार्यकारण-भाव-निमित्तक है और जैन परम्परामें इस व्यवहारका आधार परिणामपरिणामीभाव है।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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