SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृतशब्दोंको साधुता ३७९ और पक्षमोहके रंगीन चश्मोंको दृष्टिपर नहीं चढ़ने देती और इसीलिए अन्य क्षेत्रोंकी तरह भाषाके क्षेत्रमें भी उसने अपनी निर्मल दृष्टिसे अनुभवमूलक सत्य-पद्धतिको ही अपनाया है। ___ शब्दोच्चारणके लिए जिह्वा, तालु और कंठ आदिकी शक्ति और पूर्णता अपेक्षित होती है और सुननेके लिए श्रोत्र-इन्द्रियका परिपूर्ण होना । ये दोनों इन्द्रियाँ जिस व्यक्तिके भी होंगी, वह बिना किसी जातिभेदके सभी शब्दोंका उच्चारण कर सकता है और सुन सकता है और जिन्हें जिन-जिन शब्दोंका संकेत गृहीत है उन्हें उन-उन शब्दोंको सुनकर अर्थबोध भी बराबर होता है। 'स्त्री और शूद्र संस्कृत न पढ़ें तथा द्विज ही पढ़ें इस प्रकारके विधि-निषेध केवल वर्गस्वार्थकी भित्तिपर आधारित हैं ! वस्तुस्वरूपके विचारमें इनका कोई उपयोग नहीं है, बल्कि ये वस्तुस्वरूपको विकृत ही कर देते है । उपसंहार : इस तरह परोक्ष-प्रमाणके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये पाँच भेद होते हैं। इनमें 'अविशद ज्ञान' यह सामान्य लक्षण समानरूपसे पाया जाता है। अतः एक लक्षणसे लक्षित होनेके कारण ये सब परोक्षप्रमाणमें अन्तर्भूत है; भले ही इनकी अवान्तरसामग्री जुदा-जुदा हो। रह जाती है अमुक ग्रन्थको प्रमाण मानने और न माननेकी बात, सो उसका आधार अविसंवाद ही हो सकता है। जिन वचनों या जिनके वचनोंमें अविसंवाद पाया जाय, वे प्रमाण होते हैं और विसंवादी वचन अप्रमाण । यह विवेक समग्र ग्रन्थके भिन्न-भिन्न अंशोंके सम्बन्धमें भी किया जा सकता है। इसमें सावधानी इतनी ही रखनी है कि अविसंवादित्वकी जाँचमें हमें भ्रम न हो। उसका अन्तिम निष्कर्ष केवल वर्तमानकालीन सीमित साधनोंसे ही नहीं निकाला जाना चाहिये, किन्तु त्रैकालिक कार्यकारणभावको सुनिश्चित पद्धतिसे ही उसकी जांच होनी चाहिये।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy