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________________ प्राकृतशब्दोंकी साधुता ३७५ ។ को छेद देगा' यह भय भी दिखाया गया। तात्पर्य यह कि वर्गभेदके क्षेत्रमें भी अबाध गति से चला । विशेषाधिकारों का कुचक्र भाषा के वाक्यपदीय ( १ - २७ ) में शिष्ट पुरुषोंके द्वारा जिन शब्दोंका उच्चारण हुआ है ऐसे आगमसिद्ध शब्दोंको साधु और धर्मका साधन माना है । यद्यपि अपभ्रंश आदि शब्दोंके द्वारा अर्थप्रतीति होती है, पर चूँकि उनका प्रयोग शिष्ट-जन आगमोंमें नहीं करते हैं, इसलिए वे असाधु हैं । तन्त्रवार्तिक ( पृ० २७८ ) आदिमें भी व्याकरणसिद्ध शब्दोंको साधु और वाचकशक्तियुक्त कहा है और साधुत्वका आधार वृत्तिमत्त्व ( संकेतसे अर्थबोध करना ) को न मानकर व्याकरणनिष्पन्नत्वको ही अर्थबोध और साधुत्वका श्राधार माना गया है । इस तरह जब अर्थबोधक शक्ति संस्कृत - शब्दों में ही मानी गई, तब यह प्रश्न स्वाभाविक था कि 'प्राकृत और अपभ्रंश आदि शब्दोंसे जो अर्थबोध होता है वह कैसे ?' इसका समाधान द्राविड़ी प्रणायामके ढंगसे किया है। उनका कहना है कि 'प्राकृत आदि शब्दों को सुनकर पहले संस्कृत शब्दोंका स्मरण होता है और पीछे उनसे अर्थबोध होता है । जिन लोगोंको संस्कृत शब्द ज्ञात नहीं है, उन्हें प्रकरण, अर्थाध्याहार आदिके द्वारा लक्षणासे अर्थबोध होता है | जैसे कि बालक 'अम्मा अम्मा' आदि रूपसे अस्पष्ट उच्चारण करता है, पर सुननेवालोंको तद्वाचक मूल 'अम्ब' शब्दका स्मरण होकर ही अर्थ प्रतीति होती है, उसी तरह प्राकृत आदि शब्दोंसे भी संस्कृत शब्दों का स्मरण करके ही अर्थबोध होता है । तात्पर्य यह कि कहींपर साधु शब्दके स्मरणके द्वारा, कहीं वाचकशक्ति के भ्रमसे, कहीं प्रकरण और अविनाभावी अर्थका ज्ञान आदि निमित्तसे होनेवालो लक्षणासे अर्थबोधका निर्वाह हो जाता है । इस तरह एक विचित्र साम्प्रदायिक भावनाके वश होकर शब्दोंसाधुत्व क्षौर असाधुत्वको जाति कायम की गई है ! में १. 'स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात् ।' -पात० महा० पस्पशा० ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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