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________________ शब्दाथप्रमाणमीमांसा ३६९ कारणका उल्लंघन नहीं कर सकते, उसी तरह सुविवेचित शब्द भी अर्थका व्यभिचारी नहीं हो सकता। फिर शब्दका विवक्षाके साथ कोई अविनाभाव भी नहीं है, क्योंकि शब्द वर्ण या पद कहीं अवांछित अर्थको भी कहते हैं और कहीं वाञ्छितको भी नहीं कहते। यदि शब्द विवक्षामात्रके वाचक हों, तो शब्दोंमें सत्यत्व और मिथ्यात्वकी व्यवस्था न हो सकेगी। क्योंकि दोनों ही प्रकारके शब्द अपनी-अपनी विवक्षाका अनुमान तो कराते ही हैं। शब्दमें सत्य और असत्य व्यवस्थाका मूल आधार अर्थप्राप्ति और अप्राप्ति हो बन सकता है । जिस शब्दका अर्थ प्राप्त हो वह सत्य और जिसका अर्थ प्राप्त न हो वह मिथ्या होता है। जिन शब्दोंका बाह्य अर्थ प्राप्त नहीं होता उन्हें ही हम विसंवादी कहकर मिथ्या ठहराते है। प्रत्येक दर्शनकार अपने द्वारा प्रतिपादित शब्दोंका वस्तुसम्बन्ध हो तो बतानेका प्रयास करता है। वह उसको काल्पनिकताका परिहार भी जोरोंसे करता है। अविसंवादका आधार अर्थप्राप्तिको छोड़कर दूसरा कोई बन ही नहीं सकता। अगोनिवृत्तिरूप सामान्यमें जिस गौकी आप निवृत्ति करना चाहते हैं उस गोका निर्वचन करना ही कठिन है। स्वलक्षणभूत गोको निवृत्ति तो इसलिये नहीं कर सकते कि वह शब्दके अगोचर है। यदि अगोनिवृत्तिके पेटमें पड़ी हुई गौको भी अगोनिवृत्तिरूप ही कहा जाता है, तो अनवस्थासे पिंड नहीं छूटता। व्यवहारी सीधे गौशब्दको सुनकर गौ अर्थका ज्ञान करते हैं, वे अन्य अगौ आदिका निषेध करके गौ तक नहीं पहुंचते । गायोंमें ही 'अगोनिवृत्ति पायी जाती हैं।' इसका अर्थ ही है कि उन सबमें यह एक समान धर्म है। 'शब्दका अर्थके साथ सम्बन्ध माननेपर अर्थके देखनेपर शब्द भी सुनाई देना चाहिए' यह आपत्ति अत्यन्त अज्ञानपूर्ण है; क्योंकि वस्तुमें अनन्त धर्म है, उनमेसे कोई ही धर्म किसी ज्ञानके १. लघीय० श्लो० ६४, ६५। २४
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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