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________________ ३६६ जैनदर्शन 'इन्द्रियग्राह्य पदार्थ भिन्न होता है और शब्दगोचर अर्थ भिन्न । शब्दसे अन्धा भी अर्थबोध कर सकता है, पर वह अर्थको प्रत्यक्ष नहीं जान सकता । दाह शब्दके द्वारा जिस दाह अर्थका बोध होता है और अग्निको छूकर जिस दाहकी प्रतीति होती है, वे दोनों दाह जुदे-जुदे हैं, इसे समझानेको आवश्यकता नहीं है । अतः शब्द केवल कल्पित सामान्यका वाचक है । यदि शब्द अर्थका वाचक होता, तो शब्दबुद्धि का प्रतिभास इन्द्रियबुद्धिकी तरह विशद होना चाहिये था। अर्थव्यक्तियाँ अनन्त और क्षणिक हैं, इसलिये जब उनका ग्रहण ही सम्भव नहीं है; तब पहले तो उनमें संकेत ही गृहीत नहीं हो सकता, यदि संकेत गृहीत हो भी जाय, तो व्यवहारकाल तक उसकी अनुवृत्ति नहीं हो सकती, अतः उससे अर्थबोध होना असम्भव है। कोई भी प्रत्यक्ष ऐसा नहीं है, जो शब्द और अर्थ दोनोंको विषय करता हो, अतः संकेत होना ही कठिन है । स्मरण निविषय और गृहीतग्राही होनेसे प्रमाण ही नहीं है। सामान्यविशेषात्मक अर्थ वाच्य है : किन्तु बौद्धकी यह मान्यता उचित नही है । पदार्थमें कुछ धर्म सदृश होते हैं और कुछ विसदृश । सदृश धर्मोको ही सामान्य कहते हैं । यह अनेकानुगत न होकर प्रत्येक व्यक्तिनिष्ठ है। यदि सादृश्यको वस्तुगत धर्म न माना जाय, तो अगोनिवृत्ति 'अमुक गौव्यक्तियोंमें ही पायी जाती है, अश्वादि व्यक्यिोंमें नहीं, यह नियम कैसे किया जा सकेगा ? जिस तरह १. 'अन्यदेवेन्द्रियग्राह्यमन्यच्छन्दस्य गोचरः । शब्दात्प्रत्येति भिन्नाक्षो न तु प्रत्यक्षमीक्षते ॥' -उद्धृत प्रश० व्यो० पृ० ५८४ ।-न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ५५३ । २. "तत्र स्वलणं तावन्न शब्दैः प्रतिपाद्यते । ___ सङ्कतव्यवहाराप्तकालव्याप्तिविरोधतः ॥-तत्वसं० पृ० २०७ । ३. देखो, न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ५५७ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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