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________________ ३५० जैनदर्शन भी करे, तो भी वह जयी ही होगा। इसी तरह प्रतिवादी वादीके पक्षमें यथार्थ दूषण देकर यदि अपने पक्ष की सिद्धि कर लेता है, तो वह भी वचनाधिक्य करनेके कारण पराजित नहीं हो सकता । इस व्यवस्थामें एक साथ दोनोंको जय या पराजयका प्रसंग नहीं आ सकता। एककी स्वपक्षसिद्धि में दूसरेके पक्षका निराकरण गभित है ही, क्योंकि प्रतिपक्षकी असिद्धि बताये बिना स्वपक्षकी सिद्धि परिपूर्ण नहीं होती। पक्षके ज्ञान और अज्ञानसे जय-पराजय व्यवस्था माननेपर तो पक्षप्रतिपक्षका परिग्रह करना ही व्यर्थ हो जाता है; क्योंकि किसी एक ही पक्षमें वादी और प्रतिवादीके ज्ञान और अज्ञानकी जाँच की जा सकती है। पत्र-वाक्य : लिखित शास्त्रार्थमे वादी और प्रतिवादी परस्पर जिन लेख-प्रतिलेखोंका आदान-प्रदान करते है, उन्हें पत्र कहते है। अपने पक्षको सिद्धि करनेवाले निर्दोष और गूढ़ पद जिसमें हों, जो प्रसिद्ध अवयववाला हो तथा निर्दोष हो वह पत्र है। पत्रवाक्यमें प्रतिज्ञा और हेतु ये दो अवयव ही पर्याप्त है, इतने मात्रसे व्युत्पन्नको अर्थप्रतीति हो जाती है। अव्युत्पन्न श्रोताओंकी अपेक्षा तीन अवयव, चार अवयव और पांच अवयवोंवाला भी पत्रवाक्य हो सकता है। पत्रवाक्यमें प्रकृति और प्रत्ययोंको गुप्त रखकर उसे अत्यन्त गूढ़ बनाया जाता है, जिससे प्रतिवादी सहज ही उसका भेदन न कर सके । जैसे-'विश्वम् अनेकान्तात्मकं प्रमेयत्वात्' इस अनुमानवाक्यके लिये यह गूढ़ पत्र प्रस्तुत किया जाता है “स्वान्तभासितभूत्याद्ययन्तात्मतदुभान्तवाक् । परान्तद्योतितोहीप्तमितीत स्वात्मकत्वतः॥" प्रमेयक० पृ० ६८५॥ १. 'प्रसिद्धावयवं स्वेष्टस्यार्थस्य साधकम् । साधु गूढपदप्राय पत्रमाहुरनाकुलम् ॥'-पत्रप० पृ० १ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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