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________________ ३४८ जैनदर्शन लोकवत्" अर्थात् अपने पक्षको सिद्ध करके यदि कोई नाचता भी है तो भी कोई दोष नहीं है । करता है तो क्योंकि वादी प्रतिवादी यदि सीधे 'विरुद्ध हेत्वाभासका उद्भावन उसे स्वतन्त्र रूपसे पक्षकी सिद्धि करना आवश्यक नहीं है; के हेतुको विरुद्ध कहनेसे प्रतिवादीका पक्ष स्वतः सिद्ध हो जाता है । असिद्धादि हेत्वाभासोंके उद्भावन करनेपर तो प्रतिवादीको अपने पक्षकी सिद्धि करना भी अनिवार्य है | स्वपक्षकी सिद्धि नहीं करनेवाला शास्त्रार्थ के नियमों के अनुसार चलनेपर भी किसी भी हालत में जयका भागी नहीं हो सकता । इसका निष्कर्ष यह है कि नैयायिकके मतसे छल आदिका प्रयोग करके अपने पक्ष की सिद्धि किये बिना ही सच्चे साधन बोलने वाले भी वादीको प्रतिवादी जीत सकता है । बौद्ध परम्परा में छलादिका प्रयोग वर्ण्य है, फिर भी यदि वादी असाधनांगवचन और प्रतिवादी अदोषोद्भावन करता है तो उनका पराजय होता है । वादीको असाधनांगवचनसे पराजय तब होगा जब प्रतिवादी यह बतादे कि वादीने असाधनांगवचन किया है । इस असाधनांगवचन में जिस विषयको लेकर शास्त्रार्थ चला है, उससे असम्बद्ध बातोंका कथन और नाटक आदिको घोषणा आदि भी ले लिये गये है । एक स्थल ऐसा भी आ सकता है, जहाँ दुष्टसाधन बोलकर भी वादी पराजित नहीं होगा । जैसे वादीने दुष्ट साधनका प्रयोग किया । प्रतिवादीने यथार्थ दोपका उद्भावन न करके अन्य दोषाभासोंका उद्भावन किया, फिर वादीने प्रतिवादीके द्वारा दिये गये दोषाभासोंका परिहार कर दिया । ऐसी अवस्था में प्रतिवादी दोपाभासका उद्भावन करनेके “अकलङ्कोऽप्यभ्यधात् — विरुद्धं हेतुमुद्भाव्य वादिनं जयतीतरः । आभासान्तरमुद्भाव्य पक्षसिद्धिमपेक्षते ॥ " - त० श्लो० पृ० २८० । रत्नाकरावतारिका पृ० ११४१ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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