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________________ अनुमानप्रमाणमीमांसा ३४३ उसमें सत्य और अहिंसाको धर्मदृष्टि कुछ गौण तो अवश्य हो गयी है । धर्मकीर्तिने इम असंगतिको समझा और हर हालत में छल, जाति आदि असत् प्रयोगोंको वर्जनीय ही बताया है । साध्यकी तरह साधनोंकी भी पवित्रता : जैन तार्किक पहले से ही सत्य और अहिंसारूप धर्मको रक्षाके लिए प्राणोंकी बाजी लगानेको सदा प्रस्तुत रहे है । उनके गंयम और त्यागकी परम्परा साध्यकी तरह साधनोंको पवित्रतापर भी प्रथमसे ही भार देती आयी है । यही कारण है कि जैन दर्शनके प्राचीन ग्रन्थोंमें कहींपर भी किसी भी रूप में छलादिके प्रयोगका आपवादिक समर्थन भी नहीं देखा जाता । इसके एक ही अपवाद है, श्वेताम्बर परम्पराके अठारहवीं सदी के आचार्य यशोविजय । जिन्होंने वादद्वात्रिंशतिका में प्राचीन बौद्ध तार्किकों की तरह शासन प्रभावना के मोहमें पड़कर अमुक देशादिमें आपवादिक छलादिके प्रयोगको भी उचित मान लिया है। इसका कारण भी दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराकी मूल प्रकृति में दिगम्बर निर्ग्रन्थ परम्परा अपनी कठोर तपस्या, त्याग मूलभूत अपरिग्रह और अहिंसारूपी धर्मस्तम्भोंमे किसी भी प्रकारका अपवाद किसी भी उद्देश्यसे स्वीकार करने को तैयार नहीं रही, जब कि श्वेताम्बर परम्परा बौद्धोंकी तरह लोकसंग्रहकी ओर भी झुको । चूँकि लोकसंग्रहके लिये राजसम्पर्क, वाद और मतप्रभावना आदि करना आवश्यक थे इसीलिये व्यक्तिगत चारित्रको कठोरता भी कुछ मृदुता परिणत हुई । सिद्धान्तकी तनिक भी ढिलाई पानीकी तरह अपना रास्ता बनाती ही जाती है । दिगम्बरपरम्पराके किसी भी तर्कग्रन्थ में समाया हुआ है । और वैराग्यके १. " अयमेव विधेयस्तत्तत्त्वज्ञेन तपस्विना । देशाद्यपेक्षयाऽन्योपि विज्ञाय गुरुलाघवम् ॥” - द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशतिका ८६ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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