SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 373
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुमानप्रमाणमीमांसा 'व्यापक 'तदतत्' अर्थात् हेतुके सद्भाव और हेतुके अभाव, दोनों स्थलोंमें मिलता है जब कि व्याप्य केवल तनिष्ठ अर्थात् साध्यके होने पर ही होता है, अभावमें कदापि नहीं। अतः साध्य व्यापक है और साधन व्याप्य । व्याप्ति व्याप्य और व्यापक दोमें रहती है । अतः जब व्यापकके धर्मरूपसे व्याप्तिको विवक्षा होती है तब उसका कथन 'व्यापकका व्याप्यके होने पर होना ही, न होना कभी नहीं' इस रूपमें होता है और जब व्याप्यके धर्मरूपसे विवक्षित होतो है तब 'व्याप्यका व्यापकके होने पर ही होना, अभावमें कभी नहीं होना' इस रूपमें वर्णन होता है। व्यापक गम्य होता है और व्याप्य गमक; क्योंकि व्याप्यके होने पर व्यापकका पाया जाना निश्चित है, परन्तु व्यापकके होने पर व्याप्यका अवश्य ही होना निश्चित नहीं है, वह हो भी और न भो हो । व्यापक अधिकदेशवर्ती होता है जब कि व्याप्य अल्पक्षेत्रवाला। यह व्यवस्था अन्वयव्याप्तिको है। व्यतिरेकव्याप्तिमें साध्याभाव व्याप्य होता है और साधनाभाव व्यापक । जहाँ-जहाँ साध्यका अभाव होगा वहाँ-वहां साधनका अभाव अवश्य होगा अर्थात् साध्याभावको साधनाभावने व्याप्त किया है । पर जहाँ साधनाभाव होगा वहाँ साध्यके अभावका कोई नियम नहीं है; क्योंकि निर्धूम स्थलमें भी अग्नि पाई जाती है। अतः व्यतिरेकव्याप्तिमें साध्याभाव व्याप्य अर्थात् गमक होता है और साधनाभाव व्यापक अर्थात् गम्य । १. 'व्याप्तिापकस्य तत्र भाव एव, व्याप्यस्य च तत्रैव भावः ।' -प्रमाणवा० स्ववृ० ३१ । २. 'व्यापकं तदतनिष्ठं व्याप्यं तन्निष्ठमेव च ।'
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy