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________________ अनुमानप्रमाणमीमांसा ३१७ किसकी सिद्धिके लिये हेतु दिया जाता है ? फिर पक्षधर्मत्वप्रदर्शनके द्वारा प्रतिज्ञाको मानकरके भी बौद्ध का उसमे इनकार करना अतिबुद्धिमत्ता है ! ____ जब बौद्धका यह कहना है कि 'समर्थनके बिना हेतु निरर्थक है'; तब अच्छा तो यही है कि समर्थनको ही अनुमानका अवयव माना जाय, हेतु तो समर्थनके कहनेसे स्वतः गम्य हो जायेगा। ‘हेतुके बिना कहे किसका समर्थन ?' यह समाधान पक्षप्रयोगमें भी लागू होता है, 'पक्षके बिना किसकी सिद्धि के लिये हेतु ?' या 'पक्षके बिना हेतु रहेगा कहाँ ?' अत: प्रस्ताव आदिके द्वारा पक्ष भले ही गम्यमान हो, पर वादीको वादकथामें अपना पक्ष स्थापन करना ही होगा, अन्यथा पक्ष-प्रतिपक्षका विभाग कैसे किया जायेगा ? यदि हेतुको कहकर आप समर्थनकी सार्थकता मानते है; तो पक्षको कहकर ही हेतुप्रयोगको न्याय्य मानना चाहिये। अतः जब 'साधनवचनरूप हेतु और पक्षवचनरूप प्रतिज्ञा इन दो अवयवोंसे ही परिपूर्ण अर्थका बोध हो जाता है तब अन्य दृष्टान्त, उपनय और निगमन वादकथामें व्यर्थ है। उदाहरणकी व्यर्थता: उदाहरण साध्यप्रतिपत्तिमें कारण तो इसलिये नहीं है कि अविनाभावी साधनसे हो साध्यको सिद्धि हो जाती है। विपक्षमें बाधक प्रमाण मिल जानेसे व्याप्तिका निश्चय भी हो जाता है; अतः व्याप्तिनिश्चयके लिये भी उसकी उपयोगिता नहीं है। फिर दृष्टान्त किसी खास व्यक्तिका होता है और व्याप्ति होती है सामान्यरूप । अतः यदि उस दृष्टान्तमें विवाद उत्पन्न हो जाय तो अन्य दृष्टान्त उपस्थित करना होगा, और इस तरह अनवस्था दूषण आता है। यदि केवल दृष्टान्तका कथन कर दिया जाय तो साध्यधर्मीमें साध्य और साधन दोनोंके सद्भावमें शंका उत्पन्न हो जाती है । अन्यथा उपनय और निगमनका प्रयोग क्यों किया १. परीक्षामुख ३।३२ । २. परीक्षामुख ३३३-४० ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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