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________________ ३१४ जैनदर्शन 'प्रमाणसिद्ध और उभयसिद्ध धर्मीमें इच्छानुसार कोई भी धर्म साध्य बनाया जा सकता है । विकल्पसिद्ध धर्मीको प्रतीतिसिद्ध, बुद्धिसिद्ध और प्रत्ययसिद्ध भी कहते हैं। परार्थानुमान : परोपदेशसे होनेवाला साधनसे साध्यका ज्ञान परार्थानुमान है। जैसे 'यह पर्वत अग्निवाला है, धूमवाला होनेसे या धूमवाला अन्यथा नहीं हो सकता' इस वाक्यको सुनकर जिस श्रोताने अग्नि और धूमकी व्याप्ति ग्रहण की है, उसे व्याप्तिका स्मरण होनेपर जो अग्निज्ञान उत्पन्न होता है, वह परार्थानुमान है । परोपदेशरूप वचनोंको तो परार्थानुमान उपचारसे ही कहते हैं, क्योंकि वचन अचेतन हैं, वे ज्ञानरूप मुख्य प्रमाण नहीं हो सकते। परार्थानुमानके दो अवयव इस परार्थानुमानके प्रयोजक वाक्यके दो अवयव होते हैं-एक प्रतिज्ञा और दूसरा हेतु । धर्म और धर्मीके समुदायरूप पक्षके वचनको प्रतिज्ञा कहते हैं, जैसे 'यह पर्वत अग्निवाला है।' साध्यसे अविनाभाव रखनेवाले साधनके वचनको हेतु कहते हैं, जैसे 'धूमवाला होनेसे, या धूमवाला अन्यथा नहीं हो सकता' । हेतुके इन दो प्रयोगोंमें कोई अन्तर नहीं है। पहला कथन विधिरूपसे है और दूसरा निषेध रूपसे । 'अग्निके होनेपर ही धूम होता है' इसका ही अर्थ है कि 'अग्निके अभावमें नहीं होता।' दोनों १. परीक्षामुख ३।२५ । २. 'परार्थ तु तदर्थपरामर्शिवचनाजातम् ।' -परीक्षामुख ३१५० । ३. "हेतोस्तथोपपत्त्या वा स्यात्प्रयोगोऽन्यथापि वा। द्विविधोऽन्यतरेणापि साध्यसिद्धिर्भवेदिति ॥' -न्यायावतार श्लो० १७ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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