SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१२ जैनदर्शन 'अनुमानप्रयोगके समय कहीं धर्म और कहीं धर्मविशिष्ट धर्मी साध्य होता है । परन्तु व्याप्तिनिश्चियकालमे केवल धर्म ही साध्य होता है । अनुमानके भेद: इसके दो भेद है-एक स्वार्थानुमान और और दूसरा परार्थानुमान । स्वयं निश्चित साधनके द्वारा होनेवाले मायके ज्ञानको स्वार्थानुमान कहते है, और अविनाभावी साध्यसाधनके वचनोसे श्रोताको उत्पन्न होनेवाला साध्यज्ञान परार्थानुमान कहलाता है। यह परार्थानुमान उसी श्रोताको होता है, जिसने पहले व्याप्ति ग्रहण कर ली है। वचनोंको परार्थानुमान तो इसलिए कह दिया जाता है कि वे वचन परबोधनको तैयार हुए वक्ताके ज्ञानके कार्य है और थोताके ज्ञानके कारण है, अतः कारणमें कार्यका और कार्यम कारणका उपचार कर लिया जाता है। इसी उपचारसे वचन भी परार्थानुमानरूपसे व्यवहार में आते है। वस्तुतः परार्थानुमान ज्ञानरूप ही है । वक्ताका ज्ञान भी जब श्रोताको समझानेके उन्मुख होता है तो उस कालमें वह परार्थानुमान हो जाता है । स्वार्थानुमानके अंग : अनुमानका यह स्वार्थ और परार्थ विभाग वैदिक, जैन और बौद्ध सभी परम्पराओंमें पाया जाता है। किन्तु प्रत्यक्षका भी स्वार्थ और परार्थरूपमें विभाजन केवल आ० सिद्धसेनके न्यायावतार ( श्लो० ११,१२) में ही है । स्वार्थानुमानके तीन अंग है-धर्मी, साध्य और साधन । साधन गमक होनेसे, साध्य गम्य होनेसे और धर्मी साध्य और साधनभूत धर्मोका आधार होनेसे अंग है । विशेष आधारमें साध्यकी सिद्धि करना अनुमानका प्रयोजन है। केवल साध्य धर्मका निश्चय तो व्याप्तिके ग्रहणके १. देखो, परीक्षामुख ०२०-२७ । २. 'तद्वचनमपि तदेतुत्वात् ।' -परीक्षामुख ३५१ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy