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________________ तर्कप्रमाणमीमांसा ३०५ करते है। पर उसे परिगणित प्रमाणसंख्यामें शामिल न करनेसे यह स्पष्ट है कि तर्क ( ऊह ) स्वयं प्रमाण न होकर किसी प्रमाणका मात्र सहायक हो सकता है। जैन परम्परामें अवग्रहके बाद होने वाले मंगयका निराकरण करके उसके एक पक्षको प्रबल सम्भावना कराने वाला ज्ञानव्यापार 'ईहा' कहा गया है । इम ईहामें अवाय जैमा पूर्ण निश्चय तो नहीं है, पर निश्चयोन्मुखता अवश्य है। इस हाके पर्यावरूगमें ऊह और तर्क दोनों शब्दोंका प्रयोग तत्त्वार्थभाप्य में देखा जाता है, जो कि करीबकरीब नैयायिकोंको परम्पराके समीप है। ___ न्यायदर्शनमें तर्कको १६ पदार्थोमें गिनाकर भी उसे प्रमाण नहीं कहा है । वह तत्त्वज्ञानके लिये उपयोगी है और प्रमाणोंका अनुग्राहक है। जैसाकि न्यायभाष्य में स्पष्ट लिखा है कि तर्क न तो प्रमाणोंमे संगृहीत है न प्रमाणान्तर है, किन्तु प्रमाणोंका अनु ग्राहक है और तत्त्वज्ञानके लिये उसका उपयोग है । वह प्रमाणके विषयका विवेचन करता है, और तत्त्वज्ञानको भूमिका तैयार कर देता है । जयन्तभट्ट तो और स्पष्ट रूपसे इसके सम्बन्धमें लिखते है कि सामान्यरूपसे ज्ञात पदार्थमें उत्पन्न परस्पर विरोधी दो पक्षोंमें एक पक्षको शिथिल बनाकर दूसरे पक्ष की अनुकूल कारणोंके बलपर दृढ़ सम्भावना करना तर्कका कार्य है । यह एक पक्षकी भवितव्यताको सकारण दिखाकर उस पक्षका निश्चय करने वाले प्रमाण १. देखो, शाबरभा० ९।१।१ । २. 'ईहा ऊहा तर्कः परीक्षा विचारणा जिज्ञासा इन्यनान्तरम् ।” मा० १११५। ३. 'तकों न प्रमाणसंगृहीतो न प्रमाणान्तरं प्रमाणानामनुग्राहकरतत्त्वज्ञानाय कल्पते।' -न्यायभा० १११।९ । ४. 'एकपक्षानुकूलकारणदर्शनात् तस्मिन् संभावनाप्रत्ययो भविनव्यतावभासः तदितरपक्षशीथिल्यापादने तग्राहकप्रमाणमनुगृह्य तान् सुखं प्रवर्तयन् तत्त्वशानार्थमूहस्तकः ।"--न्यायमं० पृ० ५८६ । २०
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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