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________________ २९६ जैनदर्शन हार चल रहे हैं। व्याप्तिस्मरणके बिना अनुमान और संकेतस्मरणके विना किसी प्रकारके शब्दका प्रयोग ही नहीं हो सकता । गुरुशिष्यादिसम्बन्ध, पिता-पुत्रभाव तथा अन्य अनेक प्रकारके प्रेम, घृणा, करुणा आदि मूलक समस्त जोवन-व्यवहार स्मरणके ही आभारी हैं । संस्कृति, सभ्यता और इतिहासको परम्परा स्मरणके सूत्रसे ही हम तक पायी है। स्मृतिको अप्रमाण कहनेका मूल कारण उसका 'गृहीतग्राही होना' बताया जाता है। उसकी अनुभवपरतन्त्रता प्रमाणव्यवहारमें बाधक बनती है। अनुभव जिस पदार्थको जिस रूपमें जानता है, स्मृति उससे अधिकको नहीं जानती और न उसके किसी नये अंशका ही बोध करती है। वह पूर्वानुभवकी मर्यादामें ही सीमित है, बल्कि कभी-कभी तो अनुभवसे कमको ही स्मृति होती है। वैदिक परम्परामें स्मृतिको स्वतन्त्र प्रमाण न माननेका एक ही कारण है कि मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियाँ पुरुषविशेषके द्वारा रची गई हैं। यदि एक भी जगह उनका प्रामाण्य स्वीकार कर लिया जाता है, तो वेदकी अपौरुषेयता और उसका धर्मविषयक निर्बाध अन्तिम प्रामाण्य समाप्त हो जाता है। अतः स्मृतियाँ वहीं तक प्रमाण हैं जहाँ तक वे श्रुतिका अनुगमन करती है, यानी श्रुति स्वतः प्रमाण है और स्मृतियोंमें प्रमाणताको छाया श्रुतिमूलक होनेसे ही पड़ रही है । इस तरह जब एक बार स्मृतियोंमें श्रुतिपरतन्त्रताके कारण स्वतःप्रामाण्य निषिद्ध हुआ, तब अन्य व्यावहारिक स्मृतियोंमें उस परतन्त्रताकी छाप अनुभवाधीन होनेके कारण बराबर चालू रही और यह व्यवस्था हुई कि जो स्मृतियाँ पूर्वानुभवका अनुगमन करती है वे ही प्रमाण हैं, अनुभवके बाहरकी स्मृतियाँ प्रमाण नहीं हो सकतीं, अर्थात् स्मृति याँ सत्य होकर भी अनुभवको प्रमाणताके बलपर ही अविसंवादिनी सिद्ध हो पाती हैं; अपने बलपर नहीं।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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