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________________ प्रत्यक्षप्रमाणमीमांसा २८९ रूपमें ज्ञानका विषय होती है। यदि द्रव्य अनन्त है तो वे भी उसी रूपमें ही ज्ञानमें प्रतिभासित होते हैं । मौलिक द्रव्यका द्रव्यत्व यही है जो वह अनादि और अनन्त हो। उसके इस निज स्वभावको अन्यथा नहीं किया जा सकता और न अन्य रूपमें वह केवल ज्ञानका विषय ही होता है। अतः जगतके स्वरूपभूत अनादि अनन्तत्वका उसी रूपमें ज्ञान होता है। प्रश्न-आगममें कहे गये साधनोंका अनुष्ठान करके सर्वज्ञता प्राप्त होती है और सर्वज्ञके द्वारा आगम कहा जाता है, अतः दोनों परस्पराश्रित होनेसे असिद्ध हैं ? ___ उत्तर-सर्वज्ञ आगमका कारक है। प्रकृत सर्वज्ञका ज्ञान पूर्वसर्वजके द्वारा प्रतिपादित आगमार्थके आचरणसे उत्पन्न होता है और पूर्वसर्वज्ञका मान तत्पूर्व सर्वज्ञके द्वारा प्रतिपादित आगमार्थ के आचरणसे । इस तरह पूर्व-पूर्व सर्वज्ञ और आगमोंकी शृंखला बीजांकुर सन्ततिकी तरह अनादि है। और अनादि मन्ततिमें अन्योन्याश्रय दोषका विचार नहीं होता। मुख्य प्रश्न यह है कि क्या आगम सर्वज्ञके बिना हो सकता है ? और पुरुष सर्वज्ञ हो सकता है या नहीं ? दोनोंका उत्तर यह है कि पुरुष अपना विकास करके सर्वज्ञ बन सकता है, और उसीके गुणोंसे वचनोमें प्रमाणता आकर वे वचन आगम नाम पाते हैं। प्रश्न-जब आजकल प्रायः पुरुष रागी, द्वेषो और अज्ञानी ही देखे जाते हैं तब अतीत या भविष्यमें कभी किसी पर्ण वीतरागी या सर्वज्ञकी सम्भावना कैसे की जा सकती है ? क्योंकि पुरुषकी शक्तियोंको सीमाका उल्लंघन नहीं हो सकता? उत्तर-यदि हम पुरुषातिशयको नहीं जान सकते, तो इससे उसका अभाव नहीं किया जा सकता। अन्यथा आजकल कोई वेदका पूर्ण जानकार नहीं देखा जाता, तो अतीतकालमें 'जैमिनीको भी वेदज्ञान नहीं था', यह प्रसङ्ग प्राप्त होगा। हमें तो यह विचारना है कि आत्माके पूर्णज्ञानका विकास हो सकता है या नहीं ? और जब आत्माका स्वरूप अनन्त १९
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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