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________________ प्रत्यक्षप्रमाणमीमांसा २८३ योगदर्शन और वैशेषिक दर्शनमें यह सर्वज्ञता अणिमा आदि ऋद्धियोंकी तरह एक विभूति है, जो सभी वीतरागोंके लिए अवश्य ही प्राप्तव्य नहीं है। हाँ, जो इसकी साधना करेगा उसे यह प्राप्त हो सकती है । जैन' दार्शनिकोंने प्रारम्भसे ही त्रिकाल त्रिलोकवर्ती यावत्ज्ञेयोंके प्रत्यक्षदर्शनके अर्थमें सर्वज्ञता मानी है और उसका समर्थन भी किया है। यद्यपि तर्कयुगसे पहले “जे एगे जाणइ से सव्वे जाणइ" [आचा० सू० १।२३ ] -जो एक आत्माको जानता है वह सब पदार्थोंको जानता है, इत्यादि वाक्य, जो सर्वज्ञ ताके मुख्य साधक नहीं हैं, पाये जाते हैं, पर तर्कयुगमें इनका जैसा चाहिये वैसा उपयोग नहीं हुआ। आचार्य कुन्दकुन्दने नियमसारके शुद्धोपयोगाधिकार (गाथा १५८ ) में लिखा है कि 'केवली भगवान् समस्त पदार्थोंको जानते और देखते है' यह कथन व्यवहारनयसे है । परन्तु निश्चयसे वे अपने आत्मस्वरूपको ही देखते और जानते हैं । इससे स्पष्ट फलित होता है कि केवलीकी परपदार्थज्ञता व्यावहारिक है, नैश्चयिक नहीं । व्यवहारनयको अभूतार्थ और निश्चयनयको भूतार्थ-परमार्थ स्वीकार करनेको मान्यतासे सर्वज्ञताका पर्यवसान अन्ततः आत्मज्ञतामें ही होता है । यद्यपि उन्हीं कुन्दकुन्दाचार्यके अन्य ग्रन्थोंमें सर्वज्ञताके व्यावहारिक अर्थका भी वर्णन और समर्थन देखा जाता है, पर उनकी निश्चयदृष्टि आत्मज्ञताकी सीमाको नहीं लांघती। १. 'सई भगवं उप्पण्णणाणदरिसी सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्म समं जाणदि पस्सदि विहरदित्ति ।' -षट्खं० पडि० मू० ७८ । ‘से भगवं अरहं जिणे केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी'सव्वलोए सबजीवाणं सव्वभावाई जाणमाणे पासमाणे एवं च णं विहरइ ।' -आचा० २।३। पृ० ४२५ । २. 'जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारपएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।'
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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