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________________ प्रत्यक्षप्रमाणमीमांसा कि 'इदं रजतम्' यहाँ 'इदम्' शब्द सामने रखे हुए पदार्थका निर्देश करता है और 'रजतम्' पूर्वदृष्ट रजतका स्मरण है । सादृश्यादि दोषोंके कारण वह स्मरण अपने 'तत्' आकारको छोड़कर उत्पन्न होता है । यही उसकी विपर्ययरूपता है। यदि यहाँ 'तद्रजतम्' ऐसा प्रतिभास होता; तो वह सम्यग्ज्ञान ही हो जाता। अत: ‘इदम्' यह एक स्वतंत्र ज्ञान है और 'रजतम्' यह अधूरा स्मरण । चूँकि दोनोंका भेद ज्ञात नहीं होता, अतः 'इदं' के साथ 'रजतम्' जुटकर 'इदं रजतम्' यह एक ज्ञान मालूम होने लगता है। किन्तु यह उचित नहीं है; क्योंकि यहां दो ज्ञान प्रतिभासित ही नहीं होते । एक ही ज्ञान सामने रखे हुए चमकदार पदार्थको विषय करता है। विशेष बात यह है कि वस्तुदर्शनके अनन्तर तद्वाचक शब्दकी स्मृतिके समय विपरीतविशेषका स्मरण होकर वही प्रतिभासित होने लगता है। उस समय चमचमाहटके कारण गुक्तिकाके विशेष धर्म प्रतिभासित न होकर उनका स्थान रजतके धर्म ले लेते है। इस तरह विपर्ययज्ञानके वननेमें सामान्यका प्रतिभाम, विशेषका अप्रतिभाम और विपरीत विशेपका स्मरण ये कारण भले ही हों, पर विपर्ययकालमें 'इदं रजतम्' यह एक ही ज्ञान रहता है। और वह विपरीत आकारको विषय करनेके कारण विपरीतख्यातिरूप ही है । संशयका स्वरूप : ___ संशय ज्ञानमें जिन दो कोटियोंमें ज्ञान चलित या दोलित रहता है, वे दोनों कोटियाँ भी बुद्धिनिष्ठ ही है। उभयसाधारण पदार्थके दर्शनसे परस्पर विरोधी दो विशेपोंका स्मरण हो जानेके कारण ज्ञान दोनों कोटियोंमें झूलने लगता है। यह निश्चित है कि संशय और विपर्ययज्ञान पूर्वानुभूत विशेषके ही होते हैं, अननुभूतके नहीं। संशय ज्ञानमें प्रथम ही सामने विद्यमान स्थाणुके उच्चत्व आदि सामान्यधर्म प्रतिभासित होते है, फिर उसके पुरुष और स्थाणु इन दो
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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