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________________ २७० जैनदर्शन कहना है कि चक्षु तैजस पदार्थ है । उसकी किरणें निकलकर पदार्थोसे सम्बन्ध करती है और तब चक्षुके द्वारा पदार्थका ज्ञान होता है । चक्षु कि पदार्थके रूप, रस आदि गुणोंमेसे केवल रूपको ही प्रकाशित करती है, अतः वह दीपककी तरह तैजस है। मन व्यापक आत्मासे संयुक्त होता है और आत्मा जगत्के समस्त पदार्थोंसे संयुक्त है, अतः मन किसी भी बाह्य पदार्थको संयुक्तसंयोग आदि सम्बन्धोंसे जानता है । मन अपने सुखका साक्षात्कार संयुक्तसमवायसम्बन्धसे करता है। मन आत्मासे संयुक्त है और आत्मामें सुखका समवाय है, इस तरह चक्षु और मन दोनों प्राप्यकारी है। परन्तु निम्नलिखित कारणोंसे चक्षुका पदार्थके साथ सन्निकर्ष सिद्ध नहीं होता (१) यदि चक्षु प्राप्यकारी है तो उसे स्वयंमें लगे हुए अंजनको देख लेना चाहिए । (२) यदि चक्षु प्राप्यकारी है तो वह स्पर्शन इन्द्रियकी तरह समीपवर्ती वृक्षकी शाखा और दूरवर्ती चन्द्रमाको एकसाथ नहीं देख सकती । ( ३ ) यह कोई आवश्यक नहीं है कि जो करण हो वह पदार्थ से संयुक्त होकर ही अपना काम करे । चुम्बक दूरसे ही लोहेको खींच लेता है । ( ४ ) चक्षु अभ्रक, कांच और स्फटिक आदिसे व्यवहित पदार्थोके रूपको भी देख लेती है, जब कि प्राप्यकारी स्पर्शनादि इन्द्रियाँ उनके स्पर्श आदिको नहीं जान सकती । चक्षुको तेजोद्रव्य कहना भी प्रतीतिविरुद्ध है; क्योंकि एक तो तेजोद्रव्य स्वतंत्र द्रव्य नहीं है, दूसरे उष्ण स्पर्श और भास्वर रूप इसमें नहीं पाया जाता। चक्षुको प्राप्यकारी माननेपर पदार्थमें दूर और निकट व्यवहार नहीं हो सकता। इसी तरह संशय और विपर्यय ज्ञान भी नहीं हो सकेंगे। आजका विज्ञान मानता है कि आँख एक प्रकारका केमरा है । उसमें १. देखो, तत्वार्थवातिक पृ० ६८।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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