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________________ २६८ जैनदर्शन शब्दका अर्थके साथ वास्तविक सम्बन्ध ही नहीं माना और उन यावत् शब्दसंसृष्ट ज्ञानोंका, जिनका समर्थन निर्विकल्पकसे नहीं होता, अप्रामाण्य घोषित कर दिया है, और उन्हीं ज्ञानोंको प्रमाण माना है, जो साक्षात् या परम्परासे अर्थसामर्थ्यजन्य हैं । परन्तु शब्दमात्रको अप्रमाण कहना उचित नहीं हैं । वे शब्द भले ही अप्रमाण हों, जिनका विषयभूत अर्थ उपलब्ध नहीं होता। दो प्रत्यक्ष जब आत्ममात्रसापेक्ष ज्ञानको प्रत्यक्ष माना और अक्ष शब्दका अर्थ आत्मा किया गया, तब लोकव्यवहार में प्रत्यक्षरूपसे प्रसिद्ध इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्षकी समस्याका समन्वय जैन दार्शनिकोंने एक 'संव्यवहारप्रत्यक्ष' मानकर किया। विशेषावश्यकभाष्य' और लघीयस्त्रय ग्रन्थों में इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञानको संव्यवहार प्रत्यक्ष स्वीकार किया है । इसके कारण भी ये हैं कि एक तो लोकव्यवहार में तथा सभी इतर दर्शनोंमें यह प्रत्यक्षरूपसे प्रसिद्ध है और प्रत्यक्षताके प्रयोजक वैशद्य (निर्मलता ) का अंश इसमें पाया जाता है। इस तरह उपचारका कारण मिलनेसे इन्द्रियप्रत्यक्षमें प्रत्यक्षताका उपचार कर लिया गया है । वस्तुतः आध्यात्मिक दृष्टिमें ये ज्ञान परोक्ष ही हैं। तत्त्वार्थसूत्र ( १।१३ ) में मतिज्ञानकी मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध इन पर्यायोंका निर्देश मिलता है। इनमें मति, इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान है। इसकी उत्पत्तिमें ज्ञानान्तरकी आवश्यकता नहीं होती। आगेके स्मृति, संज्ञा, चिन्ता आदि ज्ञानोंमें क्रमश: पूर्वानुभव, स्मरण और प्रत्यक्ष, स्मरण, प्रत्यक्ष और प्रत्यभिज्ञान, लिङ्गदर्शन और व्याप्तिस्मरण आदि ज्ञानान्तरोंकी अपेक्षा रहती है, जब कि इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानस१ 'इंदियमणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं ।'-विशेषा० गा० ९५ । २ 'तत्र सांव्यवहारिकम् इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षम् ।' -लघी० स्व० श्लो०४।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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