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________________ प्रमाणमीमांसा २५७ सभी अपनी-अपनी जगह उसके घटक है और सभी साकल्यरूपसे प्रमाके करण हैं । इस सामग्रीमें वे ही कारण सम्मिलित हैं जिनका कार्यके साथ व्यतिरेक मिलता है। घटज्ञानमें प्रमेयकी जगह घट ही शामिल हो सकता है, पट आदि नहीं। इसी तरह जो परम्परासे कारण हैं वे भी इस सामग्रीमें शामिल नहीं किये जाते । जैन दार्शनिकोंने सामान्यतया सामग्रीकी कारणता स्वीकार करके भी वृद्ध नैयायिकोंके सामग्रीप्रामाण्यवाद या कारकसाकल्यकी प्रमाणताका खण्डन करते हुए स्पष्ट लिखा है कि ज्ञानको साधकतम करण कहकर हम सामग्रीको अनुपयोगिता या व्यर्थता सिद्ध नहीं कर रहे हैं, किन्तु हमारा यह अभिप्राय है कि इन्द्रियादिसामग्री ज्ञानकी उत्पत्तिमें तो साक्षात् कारण होती है, पर प्रमा अर्थात् अर्थोपलब्धिमें साधकतम करण तो उत्पन्न हुआ ज्ञान ही हो सकता है। दूसरे शब्दोंमें शेष सामग्री ज्ञानको उत्पन्न करके ही कृतार्थ हो जाती है, ज्ञानको उत्पन्न किये बिना वह सीधे अर्थोपलब्धि नहीं करा सकती । वह ज्ञानके द्वारा ही अर्थात् ज्ञानसे व्यवहित होकर हो अर्थोपलब्धिमें कारण कही जा सकती है, साक्षात् नहीं । इस तरह परम्परा कारणोंको यदि साधकतम कोटिमें लेने लगें; तो जिस आहार या गायके दूधसे इन्द्रियोंको पुष्टि मिलती है उस आहार और दूध देनेवाली गायको भी अर्थोपलब्धिमें साधकतम कहना होगा, और इस तरह कारणोंका कोई प्रतिनियम ही नहीं रह जायगा। ___ यद्यपि अर्थोपलब्धि और ज्ञान दो पृथक् वस्तुएँ नहीं हैं फिर भी साधनकी दृष्टिसे उनमें पर्याय और पर्यायीका भेद है ही। प्रमा भावसाधन है और वह प्रमाणका फल है, जब कि ज्ञान करणसाधन है और स्वयं करणभूत-प्रमाण है। अवशिष्ट सारी सामग्रीका उपयोग इस प्रमाणभूत १. 'तस्याशानरूपस्य प्रमेयार्थवत् स्वपरपरिच्छित्तौ साधकतमत्वाभावतः प्रमाणत्वा योगात् । तत्परिच्छित्तौ साधकतमत्वस्य अज्ञानविरोधिना शानेन व्याप्तत्वात् ।' -प्रमेयक० पृ०८।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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