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________________ प्रमाणमीमांसा २५३ भी अवश्य ही होना चाहिए । विसंवाद अर्थात् संशय विपर्यय और अनध्यवसाय । इन तीनों विसंवादोंसे रहित अविसंवादी सम्यग्ज्ञान प्रमाण होता है । आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेनके प्रमाणलक्षणमे' 'स्वपरावभासक' पद प्रयुक्त हुआ है । समन्तभद्रने उस तत्त्वज्ञानको भी प्रमाण कहा है जो एक साथ सबका अवभासक होता है । इस लक्षणमें केवल स्वरूपका निर्देश है । अकलंक और माणिक्यनन्दिने प्रमाणको अनधिगतार्थग्राही और अपूर्वार्थव्यवसायी कहा है । परन्तु विद्यानन्दका स्पष्ट मत है कि ज्ञान चाहे अपूर्व पदार्थको जाने या गृहीत अर्थको वह स्वार्थव्यवसायात्मक होने से प्रमाण ही है । गृहीतग्राहिता कोई दूषण नहीं है । ४ " अविसंवादकी प्रायिक स्थिति : अकलंकदेवने अविसंवादको प्रमाणताका आधार मानकरके एक विशेष बात यह कही है कि हमारे ज्ञानोंमें प्रमाणता और अप्रमाणताकी संकीर्ण स्थिति है । कोई भी ज्ञान एकान्तसे प्रमाण या अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । इन्द्रियदोषसे होनेवाला द्विचन्द्रज्ञान भी चन्द्रांशमें अविसंवादी होनेके कारण प्रमाण है, पर द्वित्व-अंश में विसंवादी होनेके कारण अप्रमाण । १. "स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् ।” - बृहत्स्व० श्लो० ६३ | १. “प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् ।” न्यायावता० श्लो० १ । २. “ तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत् सर्वभासकम् ।" -आप्तमी लो० १०१ । ३. “ प्रमाणमविसंवादिज्ञानमनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् । " - अष्टश०, अष्टसह ० पृ० १७५ । “स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।" - परीक्षामुख १।१ । ४. “गृहीतमगृहीतं वा यदि स्वार्थ व्यवस्यति । तन्न लोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम् ॥” -तत्त्वार्थलो० १०१, १०,७८ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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