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________________ प्रमाणमीमांसा २५१ को तो हर हालत में जानता ही है। ज्ञान चाहे प्रमाण हो, संशय हो, विपर्यय हो या अनध्यवसाय आदि किसी भी रूप में क्यों न हो, वह बाह्यार्थ में विसंवादी होने पर भी अपने स्वरूपको अवश्य जानेगा और स्वरूपमें अविसंवादी ही होगा। यह नहीं हो सकता कि ज्ञान घटपटादि पदार्थोंकी तरह अज्ञात रूपमें उत्पन्न हो जाय और पीछे मन आदिके द्वारा उसका ग्रहण हो । वह तो दीपककी तरह जगमगाता हुआ ही उत्पन्न होता है । स्वसंवेदी होना ज्ञानसामान्यका धर्म है । अतः संशयादिज्ञानों में ज्ञानांशका अनुभव अपने आप उसी ज्ञानके द्वारा होता है । यदि ज्ञान अपने स्वरूपको न जाने, यानी वह स्वयंके प्रत्यक्ष न हो; तो उसके द्वारा पदार्थ - का बोध भी नहीं हो सकता । जैसे कि देवदत्तको यज्ञदत्तका ज्ञान अप्रत्यक्ष है अर्थात् स्वसंविदित नहीं है तो उसके द्वारा उसे अर्थका बोध नहीं होता । उसी तरह यदि यज्ञदत्तको स्वयं अपना ज्ञान उसी तरह अप्रत्यक्ष हो जिस प्रकार कि देवदत्त को हैं तो देवदत्तकी तरह यज्ञदत्तको अपने ज्ञानके द्वारा भी पदार्थका बोध नहीं हो सकेगा । जो ज्ञान अपने स्वरूपका ही प्रतिभास करने में असमर्थ है वह परका अवबोधक कैसे हो सकता है ? ' स्वरूपकी दृष्टिसे सभी ज्ञान प्रमाण है । प्रमाणता और अप्रमाणताका विभाग बाह्य अर्थकी प्राप्ति और अप्राप्ति से सम्बन्ध रखता है । स्वरूपकी दृष्टिसे तो न कोई ज्ञान प्रमाण है और न प्रमाणाभास । प्रमाण और नय : तत्त्वार्थसूत्र (१ हे.) में जिन अधिगम के उपायोंका निर्देश किया है उनमें प्रमाण और नयके निर्देश करनेका एक दूसरा कारण भी है । प्रमाण समग्र वस्तुको अखण्डरूपसे ग्रहण करता है । वह भले "भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिह्नवः । बहिः प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते ॥ " - आप्तमी० श्लो० ८३ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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