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________________ २४२ जैनदर्शन करना पूर्ण चारित्र है। चारित्रके सामायिक आदि अनेक भेद है । सामायिक-समस्त पापक्रियाओंका त्याग और समताभावको आराधना । छेदोपस्थापना-व्रतोंमें दूषण लग जानेपर दोपका परिहार कर पुनः व्रतोंमें स्थिर होना। परिहारविशुद्धि-इम चारित्रके धारक व्यक्तिके शरीरमें इतना हलकापन आ जाता है कि मर्वत्र गमन आदि प्रवृत्तियाँ करनेपर भी उसके शरीरसे जीवोंको विराधना-हिंमा नहीं होती। सूक्ष्मसाम्पगय-समस्त क्रोधादिकपायोंका नाश होने पर बचे हुए मूक्ष्म लोभके नाशकी भी तैयारी करना। यथाख्यात-समस्त कपायोंके क्षय होनेपर जीवन्मुक्त व्यक्तिका पूर्ण आत्मस्वरूप में विचरण करना। इस तरह गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीपहजय और चारित्रसे कर्मशत्रुके आनेके द्वार बन्द हो जाते है। यही संवर है। ६. निर्जरा-तत्त्व : गुप्ति आदिसे सर्वतः संवृत-सुरक्षित व्यक्ति आगे आनेवाले कर्मोको तो रोक ही देता है, माथ ही पूर्वबद्ध कर्मोको निर्जरा करके क्रमशः मोक्षको प्राप्त करता है। निर्जरा झड़नेको कहते है। यह दो प्रकार की है -एक औपक्रमिक या अविपाक निर्जरा और दूसरी अनौपक्रमिक या सविपाक निर्जरा। तप आदि साधनाओंके द्वारा कर्मोको बलात् उदयमें लाकर बिना फल दिये ही झड़ा देना अविपाक निर्जरा है । स्वाभाविक क्रमसे प्रतिसमय कर्मोंका फल देकर झड़ते जाना सविपाक निर्जरा है । यह सविपाक निर्जरा प्रति समय हर एक प्राणीके होती ही रहती है। इसमें पुराने कर्मोको जगह नूतन कर्म लेते जाते है। गुप्ति, समिति और खासकर तप रूपी अग्निसे कर्मोको फल देनेके पहले ही भस्म कर, देना अविपाक या औपक्रमिक निर्जरा है। 'कर्मोंकी गति टल हो नहीं सकतो' यह एकान्त नियम नहीं है। आखिर कर्म हैं क्या ? अपने पुराने संस्कार ही वस्तुतः कर्म है । यदि आत्मामें पुरुषार्थ
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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