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________________ जैनदर्शन 'अशाश्वतानुच्छेदवाद' के रूपमें व्यवहृत होता है। उन्होंने आत्मासम्बन्धी प्रश्नोंको अव्याकृत कोटिमें डाल दिया था और भिक्षुओंको स्पष्ट रूपसे कह दिया था कि 'आत्माके सम्बन्ध में कुछ भी कहना या सुनना न बोधिके लिए, न ब्रह्मचर्यके लिए और न निर्वाणके लिए ही उपयोगी है।' इस तरह बुद्धने उस आत्माके हो सम्बन्धमें कोई भी निश्चित बात नहीं कही, जिसे दुःख होता है और जो दुःख - निवृत्तिको साधना करना चाहता है । २०२ १. आत्मतत्त्व : जैनोंके सात तत्त्वोंका मूल आत्मा : निग्गंठ नाथपुत्त महाश्रमण महावीर भी वैदिक क्रियाकाण्डको निरर्थक और श्रेयः प्रतिरोधी मानते थे, जितना कि बुद्ध । वे आचार अर्थात् चारिको ही मोक्षका अन्तिम साधन मानते थे । परन्तु उनने यह साक्षात्कार किया कि जब तक विश्वव्यवस्था और खासकर उस आत्माके विषयमें शिष्य निश्चित विचार नहीं बना लेते, जिस आत्माको दुःख होता है और जिसे निर्वाण पाना है, तब तक वे मानस-संशयसे मुक्त होकर साधना कर ही नहीं सकते । जब मगध और विदेहके कोनेमें ये प्रश्न गूंज रहे हों कि- 'आत्मा देहरूप है या देहसे भिन्न ? परलोक क्या है ? निर्वाण क्या है ?' और अन्य तीर्थिक इन सबके सम्बन्ध में अपने मतोंका प्रचार कर रहे हों, और इन्हीं प्रश्नोंपर वाद रोपे जाते हों, तब शिष्योंको यह कह - कर तत्काल भले ही चुप कर दिया जाय कि "क्या रखा है इस विवाद में कि आत्मा क्या है और कैसी है ? हमें तो दुःखनिवृत्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिये ।" परन्तु इससे उनके मनकी शल्य और बुद्धिकी विचिकित्सा नहीं निकल सकती थी, और वे इस बौद्धिक हीनता और विचारदीनता के होनतर भावोंसे अपने चित्तकी रक्षा नहीं कर सकते थे । संघमें तो विभिन्न मतवादियोंके शिष्य, विशेषकर वैदिक ब्राह्मण विद्वान् भी
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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