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________________ १८० जैनदर्शन शरीरके जिस जिस भागमें आत्माका उपयोग जाता है; वहाँ-वहाँ के शरीरके परमाणु भी तत्काल मनरूपसे परिणत हो जाते है। अथवा, हृदय-प्रदेशमे अष्टदल कमलके आकारका द्रव्यमन होता है, जो हिताहितके विचारमे आत्माका उपकरण बनता है। विचार-शक्ति आत्माकी है । अतः भावमन आत्मरूप ही होता है। जिस प्रकार भावेन्द्रियाँ आत्माकी ही विशेष शक्तियाँ है, उसी तरह भावमन भी नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमसे प्रकट होनेवाली आत्माकी एक विशेष शक्ति है; अतिरिक्त द्रव्य नहीं । बौद्ध परंपरामे हृदय-वस्तुको एक पृथक् धातु माना है, जो कि द्रव्यमनका स्थानीय हो सकता है । 'अभिधर्मकोश' में छह ज्ञानोंके समनन्तर कारणभूत पूर्वज्ञानको मन कहा है। यह भावमनका स्थान ग्रहण कर सकता है, क्योंकि चेतनात्मक है। इन्द्रियाँ मनको सहायताके बिना अपने विपयोंका ज्ञान नहीं कर सकतीं, परन्तु मन अकेला ही गुणदोषविचार आदि व्यापार कर सकता है। मनका कोई निश्चित विषय नहीं है, अतः वह सर्वविषयक होता है। गुण आदि स्वतन्त्र पदार्थ नहीं : वैशेषिकने द्रव्यके सिवाय गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये छह पदार्थ और माने है । वैशेपिककी मान्यता प्रत्ययके आधारसे चलती है । चूँकि 'गुणः गुणः' इस प्रकारका प्रत्यय होता है, अत: गुण एक पदार्थ होना चाहिए । 'कर्म कर्म' इस प्रत्ययके कारण कर्म एक १. "द्रव्यमनश्च शानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमलाभप्रत्ययाः गुणदोष विचारस्मरणादिप्रणिधानाभिमुखस्यात्मनोऽनुग्राहकाः पुद्गलाः वीर्यविशेषावजेनसमर्थाः मनस्त्वेन परिणता इति कृत्वा पोद्गलिकम् मनस्त्वेन हि परिणताः पुद्गलाः गुणदोषविचारस्मरणादिकार्य कृत्वा तदनन्तरसमय एव मनस्त्वात् प्रच्यवन्ते ।”–तत्वार्थवा० ५।१९ । २. "ताम्रपणीया अपि हृदयवस्तु मनोविज्ञानधातोराश्रयं कल्पयन्ति।" -स्फुटार्थ अभि० पृ० ४९ । ३. “षण्णामनन्तरातीतं विज्ञानं यद्धि तन्मनः ।"-अभिधर्मकोश १।१७ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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