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________________ जीवद्रव्य विवेचन १७५. को रोकता है, पुद्गलों में भरा जाता है, वह पौद्गलिक ही हो सकता है । अतः शब्द गुणके आधारके रूपमें आकाशका अस्तित्व नहीं माना जा सकता । न 'पुद्गल द्रव्य' का ही परिणमन आकाश हो सकता है; क्योंकि एक ही द्रव्यके मूर्त और अमूर्त, व्यापक और अव्यापक आदि दो विरुद्ध परिणमन नहीं हो सकते । आकाश प्रकृतिका विकार नहीं : सांख्य एक प्रकृति तत्त्व मानकर उसीके पृथिवी आदि भूत तथा आकाश ये दोनों परिणमन मानते है । परन्तु विचारणीय बात यह है किएक प्रकृतिका घट, पट, पृथिवी, जल, अग्नि और वायु आदि अनेक रूपो भौतिक कार्योके आकारमें ही परिणमन करना युक्ति और अनुभव दोनोंसे विरुद्ध है, क्योंकि संसारके अनन्त रूपी भौतिक कार्योकी अपनी पृथकपृथक् मत्ता देखी जाती है । सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणोंका मादृश्य देखकर इन सबको एकजातीय या समानजातीय तो कहा जा मकता है, पर एक नहीं । किञ्चित् समानता होनेके कारण कायोंका एक कारणसे उत्पन्न होना भी आवश्यक नहीं है। भिन्न-भिन्न कारणांसे उत्पन्न होने वाले सैकड़ों घट-पटादि कार्य कुछ-न-कुछ जड़त्व आदिके रूपमें समानता रखते हो है । फिर मूर्तिक और अमूर्तिक, रूपी और अरूपी, व्यापक और अव्यापक, सक्रिय ओर निष्क्रिय आदि रूपसे विरुद्ध धर्मवाले पृथिवी आदि और आकागको एक प्रकृतिका परिणमन मानना ब्रह्मवादकी मायामें ही एक अंशसे समा जाना है । ब्रह्मवाद कुछ आगे बढ़कर चेतन और अचेतन सभी पदार्थोको एक ब्रह्मकी विवर्त मानता है, ओर ये सांख्य समस्त जड़ों को एक जड़ प्रकृतिको पर्याय । यदि त्रिगुणात्मकत्वका अन्वय होनेसे सब एक त्रिगुणत्मक कारणसे समुत्पन्न है, तो आत्मत्वका अन्वय सभी आत्माओंमें पाया जाता है, और सत्ताका अन्वय सभी चेतन और अचेतन पदार्थोमें पाया जाता है; तो
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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