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________________ १६ जैनदर्शन लिये भी जैनदर्शनका अत्यन्त महत्त्व है । भारतीय विचारधारामें अहिंसावादके रूपमें अथवा परमतसहिष्णुताके रूपमें अथवा समन्वयात्मक भावनाके रूपमें जैनदर्शन और जैन विचारधाराकी जो देन है उसको समझे बिना वास्तवमें भारतीय संस्कृतिके विकासको नहीं समझा जा सकता। प्रस्तुत ग्रन्थ: अभी तक राष्ट्रभाषा हिन्दीमें कोई ऐसी पुस्तक नहीं थी, जिसमें व्यापक और तुलनात्मक दृष्टिसे जैनदर्शनके स्वरूपको स्पष्ट किया गया हो। वड़ी प्रसन्नताका विषय है कि इस बड़ी भारी कमीको प्रकृत पुस्तकके द्वारा उसके सुयोग्य विद्वान् लेखकने दूर कर दिया है। पुस्तककी शैली विद्वत्तापूर्ण है । उसमें प्राचीन मूल ग्रन्थोंके प्रमाणोंके आधारसे जैनदर्शनके सभी प्रमेयोंका बड़ी विशद रीतिसे यथासंभव सुवोध गैलीमें निरूपण किया गया है । विभिन्न दर्शनोंके सिद्धान्तोंके साथ तद्विषयक प्राधुनिक दृष्टियोंका भी इसमें सन्निवेश और उनपर प्रमङ्गानुसार विमर्ग करनेका भी प्रयत्न किया गया है । पुस्तक अपनेमे मौलिक, परिपूर्ण और अनूठी है। न्यायाचार्य आदि पदवियोंसे विभूपित प्रो० महेन्द्रकुमार जी अपने विपयके परिनिष्ठित विद्वान् है। जैनदर्शनके साथ तात्त्विक दृष्टिसे अन्य दर्शनोंका तुलनात्मक अध्ययन भी उनका एक महान् वैशिष्टय है। अनेक प्राचीन दुरूह दार्गनिक ग्रन्थोंका उन्होंने बड़ी योग्यतासे सम्पादन किया है । ऐसे अधिकारी विद्वान् द्वारा प्रस्तुत यह 'जैनदर्शन' वास्तवमें राष्ट्रभाषा हिन्दीके लिये एक बहुमूल्य देन है। हम हृदयसे इस ग्रन्थका अभिनन्दन करते है। बनारस । बनारस –मङ्गलदेव शास्त्री एम०, ए०, डी० फिल ( ऑक्सन ), पूर्व प्रिंसिपल गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज, बनारस २०।१०।५५ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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