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________________ '१५४ जैनदर्शन है ? उसे इस सिद्धान्तपर विश्वास रहता है कि जब हमारे मनमे इनके प्रति लेशमात्र दुर्भाव नही है और हम इन्हे प्रेमका अमृत पिलाना चाहते है तो ये कबतक हमारे सद्भावको टुकरायेंगे। उसका महात्मत्व यही है कि वह सामनेवाले व्यक्तिके लगातार अनादर करनेपर भी सच्चे हृदयसे सदा उसको हित-चिन्तना ही करता है । हम सब ऐसी जगह खडे हुए है जहाँ चारों ओर हमारे भीतर-बाहरके प्रभावको ग्रहण करने वाले कैमरे लगे है, और हमारी प्रत्येक क्रियाका लेखा-जोखा प्रकृतिको उस महाबहीमे अंकित होता जाता है, जिसका हिसाब-किताब हमे हर समय भुगतना पडता है। वह भुगतान कभी तत्काल हो जाता है और कभी कालान्तरमे । पापकर्मा व्यक्ति स्वयं अपनेमे शंकित रहता है, और अपने ही मनोभावोसे परेशान रहता है। उसकी यह परेशानी ही बाहरी वातावरणसे उसकी इष्टसिद्धि नहीं करा पाती। चार व्यक्ति एक ही प्रकारके व्यापारमे जुटते है, पर चारोंको अलगअलग प्रकारका जो नफा-नुकसान होता है, वह अकारण ही नहीं है । कुछ पुराने और कुछ तत्कालीन भाव और वातावरणोका निचोड उन उन व्यक्तियोके सफल, असफल या अर्द्धसफल होनेमे कारण पड जाते है। पुरुषकी बुद्धिमानी और पुरुषार्थ यही है कि वह सद्भाव और प्रशस्त वातावरणका निर्माण करे। इसीके कारण वह जिनके सम्पर्कमे आता है उनकी सद्बुद्धि और हृदयकी रुझानको अपनी ओर खीच लेता है, जिसका परिणाम होता है-उसको लौकिक कार्योको मिद्धिमे अनुकूलता मिलना । एक व्यक्तिके सदाचरण और सद्विचारोंकी शोहरत जब चारों और फैलती है, तो वह जहाँ जाता है, आदर पाता है, उसे सन्मान मिलता और ऐसा वातावरण प्रस्तुत होता है, जिमसे उसे अनुकूलता ही अनुकूलता प्राप्त होती जाती है । इस वातावरणसे जो बाह्य विभूति या अन्य सामग्रीका लाभ हुआ है उसमें यद्यपि परम्परासे व्यक्तिके पुराने संस्कारोंने काम लिया है; पर सीधे उन संस्कारोंने उन पदार्थोंको नही
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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