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________________ जैनदर्शन तुरन्त उत्पन्न हुए बालक में दूध पीने आदिको चेष्टाएँ उसके पूर्वभवके संस्कारों को सूचित करतीं हैं । कहा भी है " तदहर्ज स्तने हातो रक्षोदृष्टेः भूतानन्वयनात् सिद्धः १५० भवस्मृतेः । प्रकृतिज्ञः सनातनः ॥” — उद्धृत, प्रमेयरत्नमाला ४।८ । अर्थात्–तत्काल उत्पन्न हुए बालकको स्तनपानकी चेष्टासे, भूत, राक्षस आदिके सद्भावसे, परलोकके स्मरणसे और भौतिक रूपादि गुणों का चैतन्य में अन्वय न होनेसे एक अनादि अनन्त आत्मा पृथक् द्रव्य सिद्ध होता है, जो सबका ज्ञाता है । रागादि वातपित्तादिके धर्म नहीं : राग, द्वेष, क्रोध आदि विकार भी चैतन्यके ही होते हैं । वे वात, पित्त और कफ आदि भौतिक द्रव्योंके धर्म नहीं हैं, क्योंकि' वातप्रकृतिवालेके भी पित्तजन्य द्वेष और पित्तप्रकृतिवालेके भी कफजन्य राग और कफप्रकृतिवाले के भी वातजन्य मोह आदि देखे जाते हैं । वातादिकी वृद्धिमें रागादिकी वृद्धि नहीं देखी जाती, अत: इन्हें वात, पित्त आदिका धर्म नहीं माना जा सकता । यदि ये रागादि वातादिजन्य हों, तो सभी वातादिप्रकृतिवालोंके समान रागादि होने चाहिये । पर ऐसा नहीं देखा जाता । फिर वैराग्य, क्षमा और शान्ति आदि प्रतिपक्षी भावनाओंसे रागादिका क्षय नहीं होना चाहिये । विचार वातावरण बनाते हैं : इस तरह जब आत्मा और भौतिक परिणमन करनेका है और वातावरणके वातावरणको भी प्रभावित करनेका है; १. “व्यभिचारान्न वातादिधर्मः, प्रकृतिसंकरात् । - प्रमाणवा० १।१५० । पदार्थोंका स्वभाव ही प्रतिक्षण अनुसार प्रभावित होनेका तथा तब इस बात के सिद्ध करनेकी
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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