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________________ १४ जैनदर्शन की सत्ताको माननेवाला 'आस्तिक' और न माननेवाला 'नास्तिक' कहलाता है । स्पष्टतः इस अर्थमें जैन और बौद्ध जैसे दर्शनोंको नास्तिक कहा ही नहीं जा सकता। इसके विपरीत हम तो यह समझते हैं कि शब्दप्रमाणको निरपेक्षतासे वस्तुतत्त्वपर विचार करनेके कारण दूसरे दर्शनोंकी अपेक्षा उनका अपना एक आदरणीय वैशिष्टय ही है। जैनदर्शनकी देन भारतीय दर्शनके इतिहासमें जैनदर्शनकी अपनी अनोखी देन है। दर्शन शब्दका फिलासफीके अर्थमें कबसे प्रयोग होने लगा है, इसका तत्काल निर्णय करना कठिन है, तो भी इस शब्दकी इस अर्थमें प्राचीनताके विषयमें सन्देह नहीं हो सकता । तत्तद् दर्शनोंके लिये दर्शन शब्दका प्रयोग मूलमें इसी अर्थमें हुआ होगा कि किसी भी इन्द्रियातीत तत्त्वके परीक्षणमें तत्तद् व्यक्तिकी स्वाभाविक रुचि, परिस्थिति या अधिकारिताके भेदसे जो तात्त्विक दृष्टिभेद होता है उसीको दर्शन शब्दसे व्यक्त किया जाय । ऐसी अवस्थामें यह स्पष्ट है कि किसी तत्त्वके विषयमें कोई भी तात्त्विक दृष्टि ऐकान्तिक नहीं हो सकती। प्रत्येक तत्त्वमें अनेकरूपता स्वभावतः होनी चाहिये और कोई भी दृष्टि उन सबका एक साथ तात्त्विक प्रतिपादन नहीं कर सकती। इसी सिद्धान्तको जैनदर्शनकी परिभाषामें 'अनेकान्त दर्शन' कहा गया है। जैनदर्शनका तो यह आधारस्तम्भ है ही, परन्तु वास्तवमें प्रत्येक दार्शनिक विचारधाराके लिये भी इसको आवश्यक मानना चाहिये । बौद्धिक स्तरमें इस सिद्धान्तके मान लेनेसे मनुष्यके नैतिक और लौकिक व्यवहारमें एक महत्त्वका परिवर्तन आ जाता है। चारित्र ही मानवके जीवनका सार है। चारित्रके लिये मौलिक आवश्यकता इस बातको है कि मनुष्य एक ओर तो अभिमानसे अपनेको पृथक् रखे, साथ ही हीन भावनासे भी अपनेको बचाये । स्पष्टतः यह मार्ग अत्यन्त कठिन
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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