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________________ १३६ जैनदर्शन बौद्ध' इस संतानको पंक्ति और सेना व्यवहारकी तरह 'मृषा' कहते हैं । जैसे दस मनुष्य एक लाइन में खड़े हैं और अमुक मनुष्य घोड़े आदि का एक समुदाय है, तो उनमें पंक्ति या सेना नामकी कोई एक अनुस्यूत वस्तु नहीं है, फिर भी उनमें पंक्ति और सेना व्यवहार हो जाता है, उसी तरह पूर्व और उत्तर क्षणोंमें व्यवहृत होनेवाली सन्तान भी 'मृषा' याने असत्य है। इस संतानकी स्थितिसे द्रव्यकी स्थिति विलक्षण प्रकारकी है । वह किसी मनुष्यके दिमागमें रहनेवाली केवल कल्पना नहीं है, किन्तु क्षणकी तरह सत्य है। जैसे पंक्तिके अन्तर्गत दस भिन्न सत्तावाले पुरुषोंमें एक पंक्ति नामका वास्तविक पदार्थ नहीं है, फिर भी इस प्रकारके संकेत से पंक्ति व्यवहार हो जाता है, उसी तरह अपनी क्रमिक पर्यायोंमें पाया जानेवाला स्वरूपास्तित्व भी सांकेतिक नहीं है, किन्तु परमार्थसत् है । 'मृषा' से सत्यव्यवहार नहीं हो सकता। बिना एक तात्त्विक स्वरूपास्तित्वके क्रमिक पर्यायें एक धारामें असंकरभावसे नहीं चल सकतीं। पंक्तिके अन्त. र्गत एक पुरुष अपनी इच्छानुसार उस पंक्तिसे विच्छिन्न हो सकता है, पर कोई भी पर्याय चाहनेपर भी न तो अपने द्रव्यसे विच्छिन्न हो सकती है, और न द्रव्यान्तरमें विलीन ही, और न अपना क्रम छोड़कर आगे जा सकती है और न पीछे। संतानका खोखलापन : बौद्ध के संतानकी अवास्तविकता और खोखलापन तब समझमें आता है, जब वे निर्वाणमें चित्तसंततिका समूलोच्छेद स्वीकार कर लेते हैं, अर्थात् सर्वथा अभाववादी निर्वाणमें यदि चित्त दीपककी तरह बुझ जाता है, तो वह चित्त एक दीर्घकालिक धाराके रूपमें ही रहनेवाला अस्थाई पदार्थ रहा । उसका अपना मौलिकत्व भी सार्वकालिक नहीं हुआ, किन्तु इस १. “सन्तानः समुदायश्च पङ्क्तिसेनादिवन्मृषा।" -बोधिचर्या० पृ. ३३४ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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