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________________ १३१ लोकव्यवस्था करते भी रहेंगे, किन्तु अनन्त महासमुद्रमें बुद्बुद्के समान इन यंत्रोंका कितना-सा प्रभुत्व ? इसी तरह अनन्त परमाणुओं के नियन्त्रक एक ईश्वरकी कल्पना मनुष्यके अपने कमजोर और आश्चर्यचकित दिमागकी उपज है। जब बुद्धिके उषाकालमें मानवने एकाएक भयंकर तूफान, गगनचुम्बी पर्वतमालाएँ, विकराल समुद्र और फटती हुई ज्वालामुखीके शैलाव देखे तो यह सिर पकड़ कर बैठ गया और अपनी समझमें न आनेवाली अदृश्य शक्तिके आगे उसने माथा टेका, और हर आश्चर्यकारी वस्तुमें उसे देवत्वकी कल्पना हुई । इन्हीं असंख्य देवोंमेंसे एक देवोंका देव महादेव भी बना, जिसकी बुनियाद भय, कौतूहल और आश्चर्यकी भूमिपर खड़ी हुई है और कायम भी उसी भूमिपर रह सकती हैं।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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