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________________ १२८ जैनदर्शन अतः ज्ञान जिस प्रकार अपनेमें सत्य पदार्थ है, उसी तरह संसारके अनन्त जड़ पदार्थ भी अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं। ज्ञान पदार्थ को उत्पन्न नहीं करता किन्तु अपने-अपने कारणोंसे उत्पन्न अनन्त जड़ पदार्थों को ज्ञान मात्र जानता है । पृथक् सिद्ध ज्ञान और पदार्थमें ज्ञेयज्ञायकभाव होता है । चेतन और अचेतन दोनों प्रकारके पदार्थ स्वयं सिद्ध है और स्वयं अपनी पृथक् सत्ता रखते हैं। लोक और अलोक : चेतन अचेतन द्रव्योंका ससुदाय यह लोक शाश्वत और अनादि इसलिए है कि इसके घटक द्रव्य प्रतिक्षण परिवर्तन करते रहने पर भी अपनी संख्यामें न तो एकको कमी करते हैं और न एकको बढ़ती ही। इसीलिए यह अवस्थित कहा जाता है । आकाश अनन्त है। पुद्गल द्रव्य परमाणु रूप हैं । काल द्रव्य कालाणुरूप हैं । धर्म, अधर्म और जीव असंख्यात प्रदेशवाले हैं । इनमें धर्म, अधर्म, आकाश और काल निष्क्रिय हैं । जीव और पुद्गलमें ही क्रिया होती है। आकाश के जितने हिस्से तक ये छहों द्रव्य पाये जाते हैं, वह लोक कहलाता है और उससे परे केवल आकाशमात्र अलोक । चूंकि जीव और पुद्गलोंकी गति और स्थितिमें धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य साधारण निमित्त होते हैं । अतः जहाँतक धर्म और अधर्म द्रव्यका सद्भाव है, वहीं तक जीव और पुद्गलका गमन और स्थान सम्भव है । इसीलिए आकाशके उस पुरुषाकार मध्य भागको लोक कहते हैं जो धर्मद्रव्यके बराबर है। यदि इन धर्म और अधर्म द्रव्यको स्वीकार न किया जाय तो लोक और अलोकका विभाग ही नहीं बन सकता। ये तो लोकके मापदण्डके -समान है। लोक स्वयं सिद्ध है। यह लोक स्वयं सिद्ध है; क्योंकि इनके घटक सभी द्रव्य स्वयं सिद्ध हैं। उनकी कार्यकारणपरम्परा, परिवर्तन स्वभाव, परस्पर निमित्तत्ता
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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