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________________ ११० जैनदर्शन इस तरह इस विरोधी-समागमके द्वारा द्रव्य प्रतिक्षण उत्पाद, विनाश और इसकी कभी विच्छिन्न न होनेवाली ध्रौव्य-परंपराके कारण विलक्षण है। इस तरह प्रत्येक द्रव्यके इस स्वाभाविक परिणमन-चक्रमें जब जैसी कारणसामग्री जुट जाती है उसके अनुसार वह परिणमन स्वयं प्रभावित होता है और कारणसामग्रीके घटक द्रव्योंको प्रभावित भी करता है। यानी यदि एक पर्याय किसी परिस्थितिसे उत्पन्न हुई है तो वह परिस्थितिको बनाती भी है। द्रव्यमें अपने संभाव्य परिणमनोंकी असंख्य योग्यताएँ प्रतिसमय मौजूद हैं। पर विकसित वही योग्यता होती है जिसकी सामग्री परिपूर्ण हो जाती है । जो इस प्रवहमान चक्रमें अपना प्रभाव छोड़नेका बुद्धिपूर्वक यत्न करते हैं वे स्वयं परिस्थितियोंके निर्माता बनते हैं और जो प्रवाहपतित है वे परिवर्तनके थपेड़ोंमें इतस्ततः अस्थिर रहते हैं। लोक शाश्वत भी है: यदि लोकको समग्र भावसे संततिकी दृष्टिसे देखें तो लोक अनादि और अनन्त हैं । कोई भी द्रव्य इसके रंगमंचसे सर्वथा नष्ट नहीं हो सकता और न कोई असत्से सत् बनकर इसकी नियत द्रव्यसंख्यामें एककी भी वृद्धि ही कर सकता है। यदि प्रतिसमयभावी, प्रतिद्रव्यगत पर्यायोंकी दृष्टिसे देखें तो लोक 'सान्त' भी हैं। उस द्रव्यदृष्टि से देखनेपर लोक शाश्वत है। और इस पर्याय दृष्टिसे देखनेपर लोक अशाश्वत है । इसमें कार्योंकी उत्पत्तिमें काल एक साधारण निमित्तकारण है, जो प्रत्येक परिणमनशील द्रव्यके परिणाममें निमित्त होता है, और स्वयं भी अन्य द्रव्योंकी तरह परिवर्तनशील है। द्रव्ययोग्यता और पर्याययोग्यता: जगतका प्रत्येक कार्य अपने खम्भात्र्य स्वभावोंके अनुसार ही होता है, यह सर्वमत साधारण सिद्धान्त है । यद्यपि प्रत्येक पुद्गलपरमाणु घट, पट आदि सभी कुछ बननेकी द्रव्ययोग्यता है किन्तु यदि वह परमाणु मिट्टीके
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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