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________________ १०६ जैनदर्शन ईश्वरवाद : ईश्वरवादमें ईश्वरको जन्यमात्रके प्रति निमित्तमाना जाता है। उसकी इच्छाके बिना जगतका कोई भी कार्य नहीं हो सकता। विचारणीय बात यह है कि जब संसारमें अनन्त जड़ और चेतन पदार्थ, अनादिकालसे स्वतंत्र सिद्ध हैं, ईश्वरने भी असत्से किसी एक भी सत्को उत्पन्न नहीं किया, वे सब परस्पर सहकारी होकर प्राप्त सामग्रीके अनुसार अपना परिणमन करते रहते हैं तब एक सर्वाधिष्ठाता ईश्वर माननेको आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? यदि ईश्वर कारुणिक है; तो उसने जगत्में दुःख और दुःखी प्राणियोंकी सृष्टि ही क्यों की ? अदृष्टका नाम लेना तो केवल बहाना है; क्योंकि अदृष्ट भी तो ईश्वरसे ही उत्पन्न होता है । सृष्टिके पहले तो अनुकम्पाके योग्य प्राणी ही नहीं थे, फिर उसने किसपर अनुकम्पा की? इस तरह जैसे-जैसे हम इस सार्वनियन्तवादपर विचार करते हैं, वैसे-वैसे इसकी निःसारता सिद्ध होती जाती है। ___ अनादिकालसे जड़ और चेतन पदार्थ अपने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप स्वभावके कारण परस्पर-सापेक्ष भी होकर तथा क्वचित स्थल बाह्य सामग्रीसे निरपेक्ष भी रहकर स्वयं परिणमन करते जाते हैं। इसके लिए न किसीको चिंता करनेकी जरूरत है और न नियंत्रण करनेकी । नित्य, एक और समर्थ ईश्वरसे समस्त क्रमभावी कार्य युगपत् उत्पन्न हो जाने चाहिये । सहकारी कारण भी तो ईश्वरको ही उत्पन्न करना है। सर्वव्यापक ईश्वरमें क्रिया भी नहीं हो सकती। उसकी इच्छाशक्ति और ज्ञानशक्ति भी नित्य है, अतः क्रमसे कार्य होना कथमपि संभव नहीं है। जगतके उद्धारके लिए किसी ईश्वरकी कल्पना करना तो द्रव्योंके निज स्वरूपको ही परतन्त्र बना देना है । हर आत्मा अपने विवेक और सदाचरणसे अपनी उन्नतिके लिए स्वयं जवाबदार है। उसे किसी विधाताके सामने उत्तरदायी नहीं होना है। अतः जगतके सम्बन्धमें पुरुषवाद भी अन्य वादोंकी तरह निःसार है।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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