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________________ लोकव्यवस्था यह नियम नहीं है। पर वे कारण अवश्य ही कार्यको उत्पन्न करेंगे, जिनकी समग्रता और निर्बाधताकी गारंटी हो। आचार्य कुन्दकुन्दने जहाँ प्रत्येक पदार्थके स्वभावानुसार परिणमनकी चर्चा की है वहां द्रव्योंके परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभावको भी स्वीकार किया है । यह पराकर्तृत्व निमित्तके अहंकारको निवृत्तिके लिये है। कोई निमित्त इतना अहंकारी न हो जाय कि वह समझ बैठे कि मैंने इस द्रव्यका सब कुछ कर दिया है । वस्तुतः नया कुछ हुआ नहीं, जो उममें था, उसका ही एक अंश प्रकट हुआ है । जीव और कर्मपुद्गलके परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावकी चर्चा करते हुए आ० कुन्दकुन्दने स्वयं लिखा है कि "जीवपरिणामहेहूँ कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि । ण वि कुम्वदि कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे। अण्णोण्णणिमित्तं तु कत्ता आदा सएण भावेण ।। पुग्गलकम्मकदाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ।।" -समयमार गा० ८६-८८ । अर्थात् जीवके भावोंके निमित्तसे पुद्गलोंकी कर्मरूप पर्याय होती है और पुद्गलकर्मोके निमित्तसे जीव रागादिरूपसे परिणमन करता है । इतना विशेष है कि जीव उपादान बनकर पुद्गलके गुणरूपसे परिणमन नहीं कर सकता और न पुद्गल उपादान बनकर जीवके गुणरूपसे परिणत हो सकता है । केवल परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धके अनुसार दोनोंका परिणमन होता है । अतः आत्मा उपादानदृष्टिसे अपने भावोंका कर्ता है, वह पुद्गलकर्मके ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मरूप परिणमनका कर्ता नहीं है। इस स्पष्ट कथनका फलितार्थ यह है कि परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव होनेपर भी हर द्रव्य अपने गुण-पर्यायोंका ही कर्ता हो सकता है । अध्यात्ममें कर्तृत्व-व्यवहार उपादानमूलक है । अध्यात्म और व्यवहा
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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