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________________ लोकव्यवस्था ८५ जाता है । जगत् में समग्र भावसे कुछ बातें नियत हैं, जिनका उल्लंघन कोई नहीं कर सकता । यथा१. यह नियत है कि जगत्में जिनने सत् है, उनमें कोई नया 'सत्' उत्पन्न नहीं हो सकता और न मौजूदा 'सत्' का समूल विनाश ही हो सकता है । वे सत् हैं - अनन्त चेतन, अनन्त पुद्गलाणु, एक आकाश, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य और असंख्य कालद्रव्य । इनकी संख्या में न तो एककी वृद्धि हो सकती है और न एककी हानि ही । अनादिकाल से इतने ही द्रव्य थे, हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे । २. प्रत्येक द्रव्य अपने निज स्वमावके कारण पुरानी पर्यायको छोड़ता है, नईको ग्रहण करता है और अपने प्रवाही सत्त्वकी अनुवृत्ति रखता है । चाहे वह शुद्ध हो या अशुद्ध, इस परिवर्तनचक्रसे अछूता नहीं रह सकता । कोई भी किसी भी पदार्थके उत्पाद और व्ययरूप इस परिवर्तनको रोक नहीं सकता ओर न इतना विलक्षण परिणमन ही करा सकता है कि वह अपने सत्त्वको ही समाप्त कर दे और सर्वथा उच्छिन्न हो जाय ! ३. कोई भी द्रव्य किसी सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तररूपसे परिणमन नहीं कर सकता । एक चेतन न तो अचेतन हो सकता है और न चेतनान्तर ही । वह चेतन 'तच्चेतन' ही रहेगा और वह अचेतन ' तदचेतन' ही । ४; जिस प्रकार दो या अनेक अचेतन पुद्गलपरमाणु मिलकर एक संयुक्त समान स्कन्धरूप पर्याय उत्पन्न कर लेते हैं उस तरह दो चेतन मिलकर संयुक्त पर्याय उत्पन्न नहीं कर सकते, प्रत्येक चेतनका मदा स्वतन्त्र परिणमन रहेगा । ५. प्रत्येक द्रव्यकी अपनो मूल द्रव्यशक्तियाँ और योग्यताएँ समानरूपसे सुनिश्चित है, उनमें हेरफेर नहीं हो सकता । कोई नई शक्ति कारणान्तरसे ऐसी नहीं आ सकती, जिसका अस्तित्व द्रव्यमें न हो । इसी तरह कोई विद्यमान शक्ति सर्वथा विनष्ट नहीं हो सकती ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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