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________________ ८२ जैनदर्शन है, आगे कोमल अंकुरका निकलना तथा उससे क्रमश: वृक्षके बन जाने रूप असंख्य कार्यपरम्परामें उसका साक्षात् कारणत्व नहीं है, परन्तु यदि उसका उतना भी प्रथम - प्रयत्न नहीं होता, तो बीजका वह वृक्ष बननेका स्वभाव बोरे में पड़ा पड़ा सड़ जाता । अतः प्रतिनियित कार्यों में यथासंभव पुरुषका प्रयत्न भी कार्य करता है । साधारण रुई कपासके बीजसे सफेद रंग उत्पन्न होती है । पर यदि कुशल किसान लाखके रंगसे कपासके बीजोंको रंग देता है तो उससे रंगीन रुई भी उत्पन्न हो जाती है । आज वैज्ञानिकोंने विभिन्न प्राणियोंकी नस्लपर अनेक प्रयोग करके उनके रंग, स्वभाव, ऊँचाई और वजन आदिमें विविध प्रकारका विकास किया है । अतः "न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ?” जैसे निराशावादसे स्वभाववादका आलम्बन लेना उचित नहीं है। हाँ, सकल जगत्के एक नियन्ताकी इच्छा और प्रयत्नका यदि इस स्वभाववादसे विरोध किया जाता हैं तो उसके परिणामसे सहमति होनेपर भी प्रक्रियामें अन्तर है । अन्वय और व्यक्तिरेकके द्वारा असंख्य कार्योंके असंख्य कार्यकारणभाव निश्चित होते हैं और अपनी-अपनी कारण - सामग्रीसे असंख्य कार्य विभिन्न विचित्रताओंसे युक्त होकर उत्पन्न होते और नष्ट होते हैं । अतः स्वभावनियतता होनेपर भी कारणसामग्री और जगतके नियत कार्यकारणभावकी ओरसे आँख नहीं मूँदी जा सकती । नियतिवाद : नियतिवादियोंका कहना हैं कि जिसका, जिस समयमें, जहाँ, जो होना है वह होता ही है । तीक्ष्ण शस्त्रघात होनेपर भी यदि मरण नहीं होना है तो व्यक्ति जीवित ही बच जाता है और जब मरनेकी घड़ी आ जाती है तब बिना किसी कारण के ही जीवनकी घड़ी बन्द हो जाती है । " प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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