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________________ लोकव्यवस्था ७९ इतनी असमानता नहीं है कि एक द्रव्यके परिणमन दूसरे सजातीय या विजातीय द्रव्यरूप हो जॉय और अपनी पर्यायपरम्पराकी धाराको लांघ जाँय । उन्हें अपने परिणामी स्वभावके कारण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक परिणमन करना ही होगा। किसी भी क्षण वे परिणामशून्य नहीं हो सकते । “तभावः परिणामः” [तत्त्वार्थसूत्र ५।४२]। उस सत् का उसी रूपमें होना, अपनी सीमाको नहीं लांघ कर होते रहना, प्रतिक्षण पर्यायरूपसे प्रवहमान होना ही परिणाम है। न वह उपनिषद्वादियोंकी तरह कूटस्थ नित्य है और न बौद्धके दीपनिर्वाणवादी पक्षकी तरह उच्छिन्न होनेवाला ही । सच पूछा जाय तो बुद्धने जिन दो अन्तों (छोरों) से डरकर आत्माका अशाश्वत और अनुच्छिन्न इस उभय प्रतिषेधके सहारे कथन किया या उसे अव्याकृत कहा और जिस अव्याकृतताके कारण निर्वाणके सम्बन्धमें सन्तानोच्छेदका एक पक्ष उत्पन्न हुआ, उस सर्वथा उभय अन्तका तात्त्विक दृष्टिसे विवेचन अनेकान्तद्रष्टा भ० महावीरने किया और बताया कि प्रत्येक वस्तु अपने 'सत्' रूपको त्रिकालमें नहीं छोड़ती, इसलिए धाराकी दृष्टिसे वह शाश्वत है, और चूँकि प्रतिक्षणकी पर्याय उच्छिन्न होती जाती है, अतः उच्छिन्न भी है। वह न तो संसति-विच्छेद रूपसे उच्छिन्न ही है और न सदा अविकारी कूटस्थके अर्थमें शाश्वत हो। विश्वकी रचना या परिणमनके सम्बन्धमें प्राचीनकालसे ही अनेक पक्ष देखे जाते हैं। श्वेताश्वतरोपनिषत्' में ऐसे ही अनेक विचारोंका निर्देश किया है । वहाँ प्रश्न है कि 'विश्वका क्या कारण है ? कहाँसे हम सब उत्पन्न हुए हैं ? किसके बलपर हम सब जीवित है ? कहाँ हम स्थित हैं ? अपने सुख और दुःखमें किसके आधीन होकर वर्तते हैं ?' उत्तर दिया है कि 'काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा (इच्छानुसार-अटकलपच्चू), पृथिव्या १. “कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम् । संयोग एषां न स्वात्मभावादात्माप्यनीशः मुखदुःखहेतोः ॥"-श्वेता० ११२।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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