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________________ लोकव्यवस्था धारण करता है। उसको यह पूर्व व्यय तथा उत्तरोत्पादकी धारा अनादि और अनन्त है, कभी भी विच्छिन्न नहीं होती। चाहे चेतन हो या अचेतन, कोई भी सत् इस उत्पाद, व्ययके चक्रसे बाहर नहीं है। यह उसका निज स्वभाव है। उसका मौलिक धर्म है कि उसे प्रतिक्षण परिणमन करना ही चाहिये और अपनी अविच्छिन्न धारामें असंकरभावसे अनाद्यनन्त रूपमें परिणत होते रहना चाहिये। ये परिणमन कभी सदृश भी होते हैं और कभी विसदृश भी। ये कभी एक दूसरेके निमित्तसे प्रभावित भी होते हैं । यह उत्पाद, व्यय और प्रौव्यरूप परिणमनकी परम्परा किसी समय दीपनिर्वाणकी तरह बुझ नहीं सकती। यही भाव उपरोक्त गाथामें 'भावस्स पत्थि णासो' पद द्वारा दिखाया गया है । कितना भी परिवर्तन क्यों न हो जाय, परविर्तनोंकी अनन्त संख्या होने पर भी वस्तुकी सत्ता नष्ट नहीं होती । उसका मौलिक तत्त्व अर्थात् द्रव्यत्व नष्ट नहीं हो सकता। अनन्त प्रयत्न करने पर भी जगतके रंगमंचसे एक भी अणुको विनष्ट नहीं किया जा सकता, उसकी हस्तीको नहीं मिटाया जा सकता। विज्ञानकी तीव्रतम भेदक शक्ति अणु द्रव्यका भेद नहीं कर सकती। आज जिसे विज्ञानने 'एटम' माना है और जिसके इलेक्ट्रान और प्रोट्रान रूपसे भेदकर वह यह समझता है कि हमने अणुका भेद कर लिया, वस्तुतः वह अणु न होकर मूक्ष्म स्कन्ध ही है और इसीलिए उसका भेद संभव हो सका है । परमाणुका तो लक्षण है : "अंतादि अंतमझं अंतंतं णेव इंदिए गेझं । जं अविभागी दव्वं तं परमाणुं पसंसंति ।।" -नियमसा० गा० २६ । अर्थात्-परमाणुका वही आदि, वही अन्त तथा वही मध्य है। वह इन्द्रियग्राह्य नहीं होता। वह सर्वथा अविभागी है-उसके टुकड़े नहीं किये जा सकते । ऐसे अविभागी द्रव्यको परमाणु कहते हैं।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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