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________________ जैनदर्शन लिये तभी तक मार्गदर्शक होता है जबतक कि वे स्वयं वीतरागता और निर्मल ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेते। निर्मल ज्ञानको प्राप्तिके बाद वे स्वयं धर्ममें प्रमाण होते हैं । निग्गंठ नाथपुत्त भगवान महावीरको सर्वज्ञ और सर्वदर्शीके रूपमें जो प्रसिद्धि थी कि वे सोते-जागते हर अवस्थामें जानते और देखते हैं-उसका रहस्य यह था कि वे सदा स्वयं साक्षात्कृत त्रिकालाबाधित धर्ममार्गका उपदेश देते थे। उनके उपदेशोंमें कहीं पूर्वापर विरोध या असंगति नहीं थी। निरीश्वरवाद : आजकी तरह पुराने युगमें बहुसंख्या ईश्वरवादियोंकी रही है। वे जगतका कर्ता और विधाता एक अनादिसिद्ध ईश्वरको मानते रहे। ईश्वरकी कल्पना भय और आश्चर्यसे हुई या नहीं, हम इस विवादमें न पड़कर यह देखना चाहते हैं कि इसका वास्तविक और दार्शनिक आधार क्या है? जैनदर्शनमें इस जगतको अनादि माना है। किसी भी ऐसे समयकी कल्पना नहीं की जा सकती कि जिस समय यहाँ कुछ न हो और न कुछ-सेकुछ उत्पन्न हो गया हो । अनन्त 'सत्' अनादि कालसे अनन्त काल तक क्षण-क्षण विपरिवर्तमान होकर मूल धारामें प्रवाहित हैं। उनके परस्पर संयोग और वियोगोंसे यह सृष्टिचक्र स्वयं. संचालित है। किसी एक बुद्धिमानने बैठकर असंख्य कार्य-कारणभाव और अनन्त स्वरूपोंकी कल्पना की हो और वह अपनी इच्छासे इस जगतका नियन्त्रण करता हो, यह वस्तुस्थितिके प्रतिकूल तो है ही अनुभवगम्य भी नहीं है । प्रत्येक 'सत्' अपनेमें परिपूर्ण और स्वतन्त्र है । प्रतिक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप स्वभावके कारण परस्पर प्रभावित होकर अनेक अवस्थाओंमें स्वयं परिवर्तित हो रहा है। यह परिवर्तन कहीं पुरुषको बुद्धि, इच्छा और प्रयत्नोंसे बँधकर भी चलता है । इतना ही पुरुषका पुरुषार्थ और प्रकृतिपर विजय पाना है। किन्तु आज तकके विज्ञानका इतिहास इस बातका साक्षी है कि उसने अनन्त विश्वके
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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