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________________ जैनदर्शन चनें तो हैं ही। फिर भी अबतक जहाँ, जिसके द्वारा भी प्रयल हुए हैं उनको हमें सराहना ही करनी चाहिए । ऐसे ही प्रयत्नोंका फल प्रस्तुत कृति है। इसके निर्माण करानेमें श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम बनारस व दूसरे महानुभावोंका जो भी सहयोग मिला है उसके लिए वे सब धन्यवादके पात्र हैं। ग० वर्णी जैन ग्रन्थमालाको यदि कुछ श्रेय है तो इतना ही कि उसने इसे मात्र प्रकाशमें ला दिया है। न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमारजीके विषयमें हम क्या लिखें। इतना ही लिखना पर्याप्त होगा कि जैन समाजमें दर्शनशास्त्रके जो भी इने-गिने विद्वान् हैं उनमें ये प्रथम हैं। इन्होंने जैनदर्शनके साथ सब भारतीय दर्शनोंका साङ्गोपाङ्ग अध्ययन किया है और इस समय हिन्दू विश्वविद्यालयके संस्कृत महाविद्यालयमें बौद्धदर्शनकी गद्दीको सुशोभित कर ___ इन्होंने ही बड़े परिश्रम और अध्ययनपूर्वक स्वतन्त्र कृतिके रूपमें इस ग्रन्थका निर्माण किया है। ग्रन्थ सामान्यतः १२ अधिकारों और अनेक उपअधिकारों में समाप्त हुआ है। उन्हें देखते हुए इसे हम मुख्यरूपसे तीन भागोंमें विभाजित कर सकते हैं-पृष्ठभूमि, जैनदर्शनके सब मन्तव्योंका साङ्गोपाङ्ग ऊहापोह और जैनदर्शनके विरोधमें की गई टीकाटिप्पणियोंकी साधार मीमांसा । ग्रन्थके अन्तमें जैनदार्शनिक साहित्यका साङ्गोपाङ्ग परिचय भी दिया गया है। इसलिए सब दृष्टियोंसे इस कृतिका महत्त्व बढ़ गया है। ___ इस विषयपर 'जैनदर्शन' इस नामसे अबतक दो कृतियाँ हमारे देखने आई हैं। प्रथम श्रीयुक्त पं० वेचरदासजी दोशीकी और दूसरी श्वे. मुनि श्रीन्यायविजयजीकी । पहली कृति षट्दर्शनसमुच्चयके जैनदर्शन-भागका रूपान्तरमात्र है और दूसरो कृति स्वतन्त्र भावसे लिखी गई है। किन्तु इसमें तत्वज्ञानका दार्शनिक दृष्टिसे विशेष ऊहापोह नहीं किया गया है । पुस्तकके अन्तमें ही कुछ अध्याय हैं, जिनमें स्वाहाद,
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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