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________________ जैनागमों में स्याद्वाद धन्नकुलत्था य, तत्य णं जे ते इत्थिकुलत्था ते तिविहा प०, तंजहा - कुलकन्नयाइ वा कुलवहयाति वा कुलमाउयाड़ वा, तेण समणाणं निग्गथाणं अभ क्खया, तत्थण जे ते धन्नकुलत्था एवं जहा धन्नसरिसवा से तेराटठे जाव अभक्खयाचि ॥ - श्री भगवती सूत्र १८.१० ६४६ ।। टीका - सरिसव'त्ति एकत्र प्राकृतशैल्या सदृशवयस अन्यत्र सर्पपा – सिद्वार्थका, समानवयस 'दुव्वमास 'त्ति द्रव्यरूपा मासा 'कालमास'त्ति कालरूपा मामा, 'कुलत्थ 'त्ति एकत्र कुले तिष्ठन्तीति कुलस्था -कुलाङ्गना, अन्यत्र कुलत्था धान्यविशेपा सरिसवादि --- पदप्रश्नश्च छलग्रहणेनोपहासथ १०८ कृत इति ॥ मूलम् - एगे भव दुवे भव अक्ख भवं श्रव्व - , व अव लिए भव अगभृयभाव भविए मव ? सोमिला ! एगेवि ग्रह जाव अगभृयभावभविएवि ग्रह से कंणट्ठेण भते । एवं बुच्चड जाव भवियवि ग्रह १, मोमिला । दव्वटठयाय एगे ग्रह नागदमणटठयाए दुवि पसाए ग्रक्वएवि यह ग्रेव्वएवि यहं वदिविग्रह उपयोगट्टयाए योगभूयभावभविएव ग्रह से पटटे जाव भविएवि अहं ॥ - श्री भगवती सूत्र ८१६४७|| ---
SR No.010345
Book TitleJainagamo me Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalaya Ludhiyana
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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