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________________ आगया, उन जन्मान्धो की तू तू मै मैं को सुन तयों सारी स्थिति समझ कर, उन पर करुणा करता हुआ बोल उठता है-बन्धुयो । क्यों लड २ कर मर रहे हो ? क्यों चर्म-चक्षु खो लेने पर भी आन्तरिक दिव्य चक्षुओ को विनष्ट करने में उद्यत हो रहे हो सुनो, मेरी बात सुनो । मै तुम्हारा विवाद निपटाए देता हूँ, तुम सच्चे होकर भी झूठे हो । तुम ने हाथी को समझा ही नहीं। हाथी के एक २ अवयव को ही तुम हाथी समझ रहे हो । एक दूसरे को मुठलाने की कोशिश मत करो। तुम अपनी २ दृष्टि का आग्रह छोड कर हाथी के समस्त अगो को मिला डालो वस हाथी बन गया । यह ठीक है कि हाथी की पूछ रस्से जैसी मोटी होती है एवं हाथी के कान छाज जैसे होते है परन्तु केवल कान को या पूछ आदि को हाथी समझना या कहना भूल है । सभी अंगों के समुदाय का नाम हाथी है, और यही सत्य है । अपना २ आग्रह छोडो और देखो झगडा अभी निपटा पड़ा है। ठीक इसी प्रकार स्थाद्-वाद भी परस्पर एक दूसरे पर आक्रमण करने वाले दर्शनो को सापेक्ष सत्य मान कर समन्वय कर देता है। उपाध्याय यशोविजय जी ने कितने सुन्दर शब्दों मे स्याद्-वाद का रहस्य प्रकट किया है--* 'सच्चा अनेकान्त वादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता । वह सम्पूर्ण नयरूप दर्शनों को इस प्रकार वात्सल्य-दृष्टि से देखता है, जैसे कोई पिता अपने * यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव । तम्यानेकान्तवादस्य क न्यूनाधिकशेमुषी ।।
SR No.010345
Book TitleJainagamo me Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalaya Ludhiyana
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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