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________________ तप-सूत्र . तवं चरे। उ०, १८, १५ टीका-तपस्या का, त्याग का, निर्लेपता का और अकिंचनता का आचरण करो । बारह प्रकार की निर्जरा को जीवन में स्थान दो। तवसा धुणइ पुराण पावगं। . द., ९, ४, च० उ० टीका-पूर्व काल मे,-पूर्व जन्मो में किये हुए पापों की निर्जरा तप द्वारा होती है । अन-शन, उणोदरी आदि तप के भेद है. इसके सिवाय पर-सेवा, ज्ञान ध्यान की आराधना, कषाय त्याग आदि सत क्रियाएँ भी तप है। तवेण परिसुज्झई। उ०, २८, ३५ टीका बारह प्रकार के तप से ही; इन्द्रिय-दमन आदि तपस्या द्वारा ही पूर्व काल मे उपाजित कर्मो का क्षय किया जा सकता है। (४) तवी गुण पहाणस्स, उज्जुमइ। - : द०, ४, २७ टीका-जिसने अपने जीवन मे, तप को-वाह्य और आभ्यंतर दोनो प्रकार की तपस्या को, मुख्य रूप से स्थान दिया है, वह ऋजमति है, वह सरल बुद्धि वाला है, वह - निष्कपट हृदय वाला है। . २७ - - - -
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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