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________________ ३० ] [ दर्शन -सूत्र टीका -- चौवीस तीर्थंकरों की स्तुति करने से, ईश्वर-भजन करने से दर्शनमे, श्रद्धामे, सम्यक्त्वमे विशुद्धि आती है । दर्शन मोह-नीय कर्म का क्षय होता है और भावना में निर्मलता तथा दृढता पैदा होती है । ( ११ ) वितिगच्छ समावन्नेणं, अप्पाणणं नो लहइ समाहिं । आ., ५, १६२, उ, ५ टीका --- जिस आत्मा को ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी आराधना करते हुए नानाप्रकार की शकाएँ पैदा हो जाती है, नवतत्वो और " षड्-द्रव्यों के प्रति तथा अन्य दार्शनिक सिद्धान्तो के प्रति भ्रमणाएँ पैदा हो जाती है, भ्रम हो जाता है, ऐसी आत्मा समाधि रूप शाति को नही प्राप्त कर सकती है । सयम-आराधना के लिये और कर्त्तव्यपालन के लिए पूर्ण श्रद्धा तथा समाधिमय शाति की अनिवार्य आव=श्यकता है । सदेह शील आत्मा चिर शांति नही प्राप्त कर सकती है । ( १२ ) दुविहे दंसणे, सम्म दंसणे चेव, मिच्छा दंसणे चेव । ठाणा, २ रा, ठा, १ ला, उ, २३ टीका - संसार की वस्तुओ को, विश्व के द्रव्यो को देखने के दो दृष्टिकोण है :- १ सम्यक् दर्शन और २ मिथ्या दर्शन । सम्यक्-दर्शन मे आत्मा की पवित्रता प्रथम ध्येय होता है और जीवन का व्यवहार गौण होता है । मिथ्या दर्शन में ससार का सुख वैभव प्राप्त करना मुख्य ध्येय होता है, और आत्मा ईश्वर आदि आध्यात्मिक बातो के प्रति उपेक्षा होती है ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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