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________________ व्याख्या कोष] [४५३ ८-विरक्त जो आत्मा-इन्द्रियो के भोगो से, और सासारिक सुखो से, तथा मोह को पैदा करने वाली बातो से अथवा वातावरण से दूर ही रहे, वह “विरक्त" कहलाता है। . ९-वियोग किसा भी वस्तु का एक वार अथवा अधिक बार सयोग होकर, तत्पश्चात् उसका सवध छूट जाना, "वियोग" कहलाता है सबध-विच्छेद ही "वियोग" है। १०-विराधना तीर्थकर, गणधर, स्थविर, आचार्य, बहुश्रुत आदि की आज्ञा के विपरात चलना, शास्त्र-मर्यादा के खिलाफ आचरण का रखना "विराधना" है। विराधना मिथ्यात्व का ही रूप है, जो कि आत्मा के लिये अहितकर है। ११-विवेक हित और अहित का भान होना, अच्छे और बुरे की पहचान होना, व्यवहार योग्य और अव्यवहार योग्य वातो का ज्ञान होना। १२-विषय __इन्द्रियों के भोग और परिभोग पदार्थ ही विषय कहलाते है। मन द्वारा भोग और परिभोग पदार्थों की जो मधुर कल्पना और भोग-कल्पना की जाती है, वही इस सबंध में "मन का विषय" कहा जा सकता है इन्दियो के विषय इस प्रकार है ---- १-कान के लिये-जीव शब्द, अजीव शब्द और मिश्र शब्द ! . २- आंख के लिये .-देखी जाने वाली वस्तुओं का रूप-काला, पीला, लीला, लाल और सफेद । नाटक आदि का अन्तर्गत इसामें हो गया है ! '३-नाक के लिये .-सुगंध और दुगंध ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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