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________________ ४४४ ] - १२ -- मूर्ति जा परमार्थी पुरुष अपनी इन्द्रियों और मन पर पूरा पूरा नियंत्रण रखता = हुआ, अहिंसा, सत्य. अचाय, ब्रह्मचर्य आर निष्परिग्रह धर्म का परिपूर्ण राति से पालन करता हा, वही " मुनि " हैं । ' ईश्वर प्राप्ति" नामक साधक महापुरुष ही मनि कहलाता है । सावना का - [ व्याख्या कोष १३ – मुमुक्षु मोक्ष की इच्छा करन वाला और मक्ष-पथ का पथिक ही - कषाय - भावना से छुटकारा चाहने वाला "ममुक्ष" कहा जाता है । मुमुक्षु है । १४—मूढ जो पुरुष मन ही मन में विषयो का चिन्तन करता रहता है, चित्त द्वारा - भोगो की प्राप्ति की इच्छा करना रहता है, वह मूढ है । १५-- मूर्च्छा विपयो के प्रति अन्वा हो जाना, मोह में डूब जाना, यही "मूर्च्छा” का - लक्षण है । १६ --मोह आत्मा में रहे हुए मुख्य और मूल गुणों को जो कपाय नष्ट कर देता है, वही "माह" है | सभी कपायो का और विषय विकारो का सम्मिलित नाम "मोह" ही है । १७ -- मोहनीय कर्म जैसे मदिरा मनुष्य को वेभान कर देती है, स्थान भष्ट करके इधर - उबर लुढका देती है, वैसे ही यह कर्म भी हर आत्मा की विषयो में, विकारो = में और कपायों में जकड देता है । इस कर्म के कारण से आत्मा का चारित्र और आत्मा की भावनाऐं पाप पूर्ण हो जाती हैं । इसके वलपर आत्मा भोगो -में फँस जाती है । इसके मुख्य दो भेद है – १ दर्शन माहनीय और २ चारित्र
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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