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________________ ४२८] [व्याख्या कोष ८-तिर्यच-गति जलचर प्राणी, आकाश मे उड़ने वाले प्राणी, पशु, पक्षी आदि पंचेन्द्रिय और एकेन्दिय से लगाकर चतुरिन्द्रिय प्राणी-तियंच गति के जीव कहे जाते है । ९-तृष्णा विस्तृत पैमाने वाली इच्छाऐ, अति लोभ मय दुर्भावनाऐ, अतृप्त महान् -आकाक्षाएं। १०.-तीर्थ एक प्रकार का धर्म-मार्ग, जो कि तीर्थंकरो द्वारा स्थापित किया जाता है । साधु-साध्वी सस्था और श्रावक-श्राविका-सस्था भी कही जाती है । तीर्थ पवित्र स्थान को भी कहा जाता है। तीर्थ एक प्रकार का उच्च धार्मिक मार्ग, जिसका अवलम्बन लेकर आत्मा अपना विकास कर सकती है । ११-तीथंकर केवल ज्ञान, केवल दर्शन सम्पन्न वे महापुरुप जो कि साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप तीर्थ की स्थापना करते है। जैन-शासन और जैन-धर्म का विस्तृत रूप से सचालन करनेवाले । प्रत्येक उत्सर्पिणी काल और अवपिणी काल मे २४-२८ तीर्थकर हुआ करते है। ऐसे आज दिन तक अनन्तानन्त तीर्थंकर हो चुके है और भविष्य मे भी होगे । १-दर्शन १ दार्शनिक सिद्धान्तो पर, धार्मिक आचरणो पर, और नैतिक वातो __ पर पूरा पूरा विश्वास करना "दर्शन" है । आत्मा, ईश्वर, पाप, पुण्य आदि के प्रति पूरा पूरा आस्तिक रहना “दर्शन" है । २ किसी वस्तु का पूरा पूरा ज्ञान होने के पहले उस वस्तु सम्बन्धी - साधारण आभास होना भी 'दर्शन कहा जाता है ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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