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________________ ४१८ ] [ व्याख्या कोष ३- आचार्य माधु-साध्वियों को सुनिश्चित परम्परा के अनुसार संचालन करने वाले नेता, अथवा विशेष शास्त्रो के महान् ज्ञाता, असाधारण उद्भट विद्वान् पुरुष । *४ -- आत्मा चेतना वाला द्रव्य, अथवा जीव | ज्ञान-शील पदार्थ ही आत्मा है | ३ - आत्यतिक "अत्यत" का ही विशेपण रूप "आत्यतिक" है । अर्थात् अत्यत वाला । ६ - आध्यात्मिक "आत्मा" से सवध रखने वाले सिद्धान्तो और वातो का एक पर्याय वाचा विशेषण | 39 - आर्त्त-ध्यान शोक करना, चिन्ता करना, भय करना, रोना, चिल्लाना, सासारिक सुख और धन-वैभव का ही चिन्तन करते रहना । ८-- आरभ सांसारिक सुख-सुविधा बढाने के लिये, वैभव का सामग्री इकट्ठी करने के लिये विविध प्रकार का प्रयत्न करना । अथवा ऐसे काम करना, जिनसे जीवो की हिंसा की सम्भावना हो । ९ -- आर्य दान, पुण्य, पाप, आत्मा, श्रद्धा रखते हुए मद्य, मनुष्यो में ऐसी श्रेष्ठ जाति, जो कि दया, ईश्वर आदि धार्मिक सिद्धान्तो मे पूरी तरह से नाम, जुआ. शिकार आदि व्यसनो से और अभक्ष्य पदार्थों से परहेज करती हो । सात्विक और नैतिक प्रवृत्ति वाली मनुष्य जाति । २०--आराधना शास्त्रों के वचनो के अनुसार चलना, वैसा ही व्यवहार जीवन में रखना ।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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